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भयभीत हूँ। भोगों का मुख्य साधन वे ही हैं। अतः मैं इहभव परभव में सुखकारी तपाचरण करूँगा । आप अनुज्ञा दें।" ऐसा सुनकर राजा ने सोचा मेरा मित्र विरक्त हुआ। ऐसा देखकर कौन विरक्त न हो! । हाथी, अश्व, सैनिक आदि का समूह साथ में होने पर भी इसकी एक स्त्री से रक्षा न हो सकी । क्योंकि इस संसार में जीव निःशरण हैं, विविध कर्मो के द्वारा अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित होतें हैं। इस संसार में कर्म से आवर्त जीव को सुख कहाँ? जैसे इसको कपि बनाया, वैसे मुझे कोई करे तो मेरी क्या दशा? यह एक से दुःखी बना तो मेरी इन अनेकों से क्या हालत बनेगी? इस प्रकार भव से उद्विग्न विचार कर रहा था । तभी उद्यानपालक ने बधाई दी कि 'हे देव!' 'हेमजट' तापस ज्ञान ध्यान युक्त परिवार सहित नगर के बाहर पधारे हैं । "राजा सपरिवार वहाँ गया और देशना सुनकर हरिवीर आदि के साथ तापस बना । उसका नाम 'स्वर्णजट' दिया । राजा की पट्टरानी सुरसुंदरी भी व्रत विघ्न के भय से गर्भ की स्थिति बिना बताये तापसी हुई।
हेमजट, स्वर्णजट आदि पांचसौ तापसों के साथ वन में आकर पुनः तप में प्रवृत्त हुआ । एक बार गर्भ का ध्यान आने पर पूछा तब रानी ने सत्य बात कही । बाद में एक पुत्री का जन्म हुआ । उसका नाम तापस सुंदरी दिया । क्रम से तपस्विनियों | के द्वारा पालन कराती हुई रूप-लावण्य युक्त युवावस्था में आयी। पिता ने उसे चौसठ कला में प्रवीण बना दी।
समय पर हेमजट ने स्वर्णजट तापस को अपना पद और साधन विधि सहित आकाशगामी पल्यंक विद्या दी फिर स्वर्गवासी हुआ । तब से पर्वत पर कुलपति स्वर्णजट की आज्ञा में तापस रहे हुए हैं। एकबार स्वर्णजट, गिरिचूडयक्ष के चैत्य में उपवास पूर्वक ध्यान आसन आदि के द्वारा उस विद्या को सिद्ध करने लगा । एक लक्ष जाप, इक्कीस दिन में पूर्ण हुए । देव ने संतुष्ट होकर आकाश-गामिनी पल्यंक दिया
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