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शीघ्र गया तो मधुकंठ के साथ उसको रथारूढ़ देखा । वह मुझे देखकर बोली। 'मूढ़ ! एक पक्षीय स्नेह कैसा?'
मेरे पिता ने अनजान में विवाह किया है। मैं तो बालपने से ही गीतकला में प्रवीण इस मधुकंठ पर आसक्त हूँ। इसीको पति रूप में चाहती थी । मैंने विवाह को नहीं माना था । परंतु स्वजनों के अत्याग्रह से विवाह मंजूर किया था । इस प्रकार उसने अपना समग्र चरित्र विस्तार से कहकर कहा । सभी को विश्वास हो, इसलिए तुझ पर स्नेह दर्शाया । दोबार तुमको खाली हाथ भेजा । परंतु नहीं समझा
और वापिस आया । इसलिए परिव्राजिका प्रदत्त वलय से तुझे कपि बना दिया । अब तिर्यंच योनि भोग। क्योंकि सजा के बिना मूर्ख नहीं मानते । दोबार सूचित करने पर भी मेरे अभिप्राय को न समझा । तब दूसरा उपाय न देखकर यह सब किया, इसमें मेरा दोष नहीं। अब मैं कहीं जाकर पिता के धन से मौज करूँगी । तू भी बंदरीयों के साथ क्रीड़ा कर। इस प्रकार मुझे कहकर मधुकंठ को रथ चलाने को कहा । तब मैं क्रोधान्वित बनकर उसे नखों से विदारने लगा, तब मधुकंठ ने मेरे मस्तक पर खड्ग से वार किया । मैं मूर्छित हो गया । रात में हवा से होश आया । प्रात: चारों ओर घूमता हुआ एक कपियूथ को देखा । नायक बंदर को हराकर मैं यूथेश बना । एकबार एक भिल्ल ने मुझे प्रमादावस्था में पकड़कर नृत्यादि कला सिखायी । और हे स्वामी ! उसने आपको मुझे समर्पित किया । और आपने आज मुझे मानव बनाया । मेरे इस चरित्र को सुनकर कोई स्त्री पर विश्वास न करे । विषयासक्त जीव कौन सी पीड़ा नहीं पाते? विषयासक्तों का प्रायः करके स्त्रियाँ पराभव करती है।"
ऐसा सुनकर राजा बोला "हे मित्र! खेद न कर । किसी सुशील कन्या से तेरा विवाह करेंगे । तू उनके साथ भोगों को भोग ।" "उसने कहा' स्वामी! आपके होने पर कोई कमी नहीं। पर मैं स्त्रियों से