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रोया । धीरे-धीरे शोक से निवृत्त होकर दूसरे सेनापति की नियुक्ति की । फिर पूर्ववत् राज-कार्य करने लगा ।
इधर एकबार राजा गज ग्रहण की इच्छा से सब सामग्री लेकर विन्ध्यपर्वत के पास वन में गया। वहाँ गजों को ग्रहण किया, एकबार एक शबर बंदर के परिवार को लेकर आया और बंदरों से अनेक प्रकार के खेल करवाकर राजा का मनोरंजन किया। राजा ने शबर को बहुत धन दिया । मुख्य कपि राजा को देखकर अश्रुधारा बहाने लगा । बार-बार पैरों पर गिरने लगा । राजा विस्मित हुआ । कपि चेष्टा से कुछ कहते हुए भी कोई उसके भावों को जान न सका । तब राजा ने उसके अभिप्राय को ऐसा जाना कि यह मेरे पास रहना चाहता है अतः मैं इसे ले लूं । उसने शबर को धन देकर उस पूरे कपिवृन्द को ले लिया । पशुरक्षाधिकारी को उनकी व्यवस्था का अधिकार दे दिया । गजों को ग्रहणकर अनेक दिनों के बाद राजा अपने नगर में आया । पशुरक्षाधिकारी केलीवीर अवसर प्राप्त होने पर कपिवृंद का नृत्य करवाता है । राजा रंजित होकर अधिक ग्रास आदि दान देता है, राजा तत्त्व से अज्ञ होते हुए भी उस मुख्य बंदर के लिए मणिस्वर्णालंकार बनवाता है। जब स्वर्णालंकार स्वर्णकार ले आया। तब राजा ने अपने हाथों से उस बंदर को गहने पहनाने प्रारंभ किये। जब गले का वलय निकालकर नया वलय पहनाने हेतु तत्पर हुआ । तब वह बंदर पुरुष रूप में प्रकट हो गया और उसने राजा को प्रणामकर कहा कि "हरिवीर आपको नमन करता है।'' राजादि सब सम्भ्रात होकर पूछने लगे-"यह कैसे हुआ? तब वह रोने लगा । राजा ने उसे आलिंगन देकर प्रीतिपूर्वक एक आसन पर बिठाया । राजा के आदेश से अनेक प्रकार के बाजे बजाकर हर्ष व्यक्त किया गया । उसका कुटुम्ब भी उस वृत्तान्त को जानकर वहाँ आया । गले लगकर रोने लगे । मंगल आशीर्वाद दिये । फिर राजा के पूछने पर उसने कहा "हे स्वामिन् ! कर्म के कारण कुछ भी दुर्लभ नहीं है। कर्म ने मुझे