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साथ रह सकुँ । जाने का दिन तय किया । माता-पिता ने हितशिक्षा दी । वत्से! पतिभक्त रहना । सदाचार का पालन करना, परिवार के साथ निष्कपट व्यवहार रखना । नणंद से स्नेह, सासु पर भक्ति, देवर पर स्निग्ध, परिवार पर वात्सल्य भाव रखना । इत्यादि हितशिक्षा उसने एकाग्रता से सुनी और दूसरे कान से बाहर निकाल दी । हरिवीर की भावनानुसार मधुकंठ को साथ भेज रहे थे । सुभगा अंदर बाहर दोनों ओर से खुश थी। कुछ दूर तक सभी पहुँचाने गये । “फिर आना' कहकर अपने-अपने घर गये।
हरिवीर मधुकंठ के दर्शित मार्ग से आगे बढ़ रहा था । सुभगा के कृत्रिम प्रेम से वह प्रफुल्लित था । मार्ग में एक स्थान पर नदी और वन देखकर सुभंगा ने कहा 'यहाँ हम भोजनादि से निवृत्त हो जायँ । हरिवीर ने वहाँ पड़ाव डाला । भोजनादि हो जाने के बाद पूर्व के संकेतानुसार सुभगा ने कहा "हम यहाँ इस वन में थोड़ी देर क्रीड़ा करने के लिए जायँ । आप अपने आदमीयों को यहाँ रुकने को कहें ।" सुभगा के प्रेम से अंधा बना हरिवीर उसके साथ उस अरण्य में गया । मधुकंठ भी रथारूढ़ होकर उनकी रक्षा के बहाने अंदर गया और सैनिक बाहर रक्षक के रूप में रहे। एक प्रहर बीत गया फिर भी हरिवीर को बाहर आया न देखकर वे उसको खोजने अंदर गये । परंतु तीनों में से कोई न मिला । आगे जाने पर एक जगह हरिवीर की तलवार मिली । खिन्न होकर उन्होंने तीन दिन तक उनको ढूंढने का प्रयत्न किया । परंतु न मिलने पर महापुर आकर भोगराजा को शोक के समाचार दिये। शोकमग्न भोगराजा ने अपने हजारों सैनिकों को चारों ओर ढूंढने के लिए भेजे।
वे सभी खोज़-खोज़ कर थककर वापिस आये । फिर भी किसीके न मिलने पर पुत्र से भी अधिक प्रिय हरिवीर के वियोग से राजा शोकमग्न रहने लगा । उसका परिवार भी बहुत