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उसे दूर भगाने के लिए वन में गया, तो वहाँ उसने कोल (सुअर) को नहीं देखा । परंतु वहाँ एक श्वेत हस्ति कैलाश पर्वत जितना बड़ा देखा । उसे देख जयानंदकुमार खुश होता हुआ उसे घूमाकर मुष्टि प्रहारों से थकाकर, वश में कर उस पर चढ़ गया । मुष्ठि के प्रहार से उसे हेमपुर की ओर ले जाने का प्रयत्न किया । परंतु गजराज बलपूर्वक वन में दूर तक चला गया । फिर वह आकाश में उड़ा । कुमार उसकी पीठ पर बैठा था । सरोवरों को गोष्पद के समान, नदी सारणी के समान, पर्वत बिल के समान देखता हुआ सोचने लगा 'यह कोई वैरी होगा तो मुझे कहीं समुद्रादि में फेंक देगा । ऐसा सोचकर उसने एक मुष्टि का प्रहार किया । वह हाथी विह्वल होकर उसे आकाश में छोड़कर कहीं चला गया । जयानंदकुमार तो गिरते ही देवीदत्त विघ्न निवारिणी औषधि का स्मरणकर एक सरोवर में गिरा । उसे तैरकर तट पर आ गया ।। कुमार एकवृक्ष पर चढ़कर मार्ग देखने लगा । वहाँ निकट में एक ग्राम और मार्ग दिखायी दिया । वह वहाँ से उतरकर चलने की सोच रहा था, इतने में वह वृक्ष भी आकाश में उड़ा । शीघ्रता से अरण्य में जाकर एक पर्वत के खंड के पास रुका । कुमार उस पर से उतरकर तापसों से सेवित एक व्याघ्र को देखकर विस्मित हुआ। वह तापसों के पास गया । तापसों से पूछने पर तापसों ने कहा "हे नरवृषभ! आओ आओ तुम्हारा स्वागत है ।" तापसों ने आलिंगन देकर उचित आसन पर बिठाया । और कहा 'यह कथा बड़ी है। पहले आप भोजनादि से निवृत्त हो जाओ । फिर हम व्याघ्र की बात कहेंगे । जयानंदकुमार ने वैसा ही किया । तापसों में मुख्य हरिवीर था । उसने व्याघ्रचरित्र कहना प्रारंभ किया:
"महापर में नरसंदर राजा था । उसका प्रिय पात्र हरिवीर नामक बालमित्र सेनापति था । राजा का प्रीतिपात्र, स्वजनों में अग्रिम, उनका