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है। तेरा धर्म कौन सा है? जिससे मुझ उपकारी की भी पूजा नहीं करता है । ऐसे उसके वचन सुनकर कार्योत्सर्ग ध्यान पारकर कुमार बोला-जगत में श्रेष्ठ परमेष्ठि पुरुषों का ध्यान करता हूँ। जिनके ध्यान से आधि-व्याधि और उपाधि सभी नष्ट हो जाती है। मेरा धर्म अर्हत् प्रणित जगत हितकारी अहिंसा प्रधान है। जिसमें मिथ्यादृष्टियों की अर्चा का त्याग है । अतः हे भद्रे ! यदि आत्मा का हित चाहती है तो हिंसा मत कर । देव भी हिंसा के कारण क्रमशः नरक में जाते हैं। फिर उसके पूछने पर कुमार ने विस्तारपूर्वक अर्हत् प्ररूपित धर्म का स्वरूप समझाया । उस देवी ने कुमार के वचन से प्रबुद्ध होकर सम्यक्त्व को स्वीकार किया । हिंसा से विरक्त हुई । पूर्वकृत हिंसा के पाप से मुक्त होने के लिए अर्हत् पूजा, संघ सहायता धर्म प्रभावना आदि को स्वीकार किया । फिर उसको गुरु मानकर दिव्य औषधि दी। जिसको शिर पर रखने से स्व-पर का इच्छित रूप हो सके। अलंकार वस्त्रादि देकर पुष्प रत्नादि की वृष्टि की। दुंदुभि नादकर उसको नमस्कारकर देवी चली गयी । वहाँ से वह राजा के महल में गयी और बोली'जागते हो या नहीं?' राजा ने कहा-जामाता के घर धुंआ आदि देखकर निद्रा कैसे आए? तब देवी ने कहा-वह सात्त्विक शिरोमणि है। प्रतिकूल व अनुकूल उपसर्गो में अडिग रहकर उसने मुझे दयामूल आर्हत् धर्म प्राप्त करवाया। तू भी उसके पास धर्म का स्वरूप समझकर स्वीकार करना। देवी ऐसा कहकर अपने स्थान पर गयी ।
प्रातः राजादि सभी दुंदुभि नाद से प्रभावित सर्व वृत्तांत जानने हेतु कुमार के महल में गये । वहाँ दिव्य वस्त्रालंकार, रत्नवृष्टि, पुष्प आदि देखकर आश्चर्य को प्राप्त किया । कुमार ने भी राजादि का अभ्युत्थान आदि से सत्कारकर उनके पूछने पर रात्रि का पूरा वर्णन सुनाया । चमत्कार को पाये राजाकुमार के पास धर्मश्रवणकर, धर्म स्वीकार करने का विचार कर रहे थे । इतने में उद्यान पालक