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मुझ से भोजन की व्यवस्था न हो तो तू प्रयत्न करना। और मेरे द्वारा कार्य सिद्ध हो जाय तो अगले दिन तुम परीक्षा करना ।" "ऐसा कहकर वह जयानंद को छोड़कर आगे चला । वहाँ अरण्य में अलंकारों के लोभ से उसे भिल्लों ने पकड़ लिया । शतकूटगिरि पल्ली का प्रभु चंडसेन नंदीशालपुर के साथ युद्ध के लिए जा रहा था । भिल्लों ने सिंहसार को उसे सौंप दिया । वह उसे साथ लेकर जा रहा था । सैनिकों के कोलाहल से जयानंद का ध्यान उस ओर गया । उसने अपने भाई को कैदी के रूप में देखकर उनको ललकारा । वे भी उसके अलंकारों से आकर्षित होकर उसे पकड़ने आये । जयानंद ने उनसे युद्ध किया । भिल्ल उसके राजतेज के सामने ठहर न सके । चण्डसेन ने सोचा ‘यह सामान्य पथिक नहीं है । जीवन बचाना है तो इससे मित्रता ही अच्छी है ।' चण्डसेन ने पूछा "तुम युद्ध क्यों कर रहे हो?' उसने कहा "तुमने मेरे भाई को पकड़ा है उसे छोड दो फिर यथास्थान जाओ ।' भिल्लपति ने कहा “अलंकार सहित तेरे भाई को ले ले ।'' पल्लीपति ने सिंहसार को छोड़ दिया। पल्लीश उन दोनों को पल्ली में ले गया, और वहाँ आदर सत्कार पूर्वक रखा । पल्लीश उनके पास धनुर्विद्या आदि कला शीख रहा था । सिंह तो पल्लीश के साथ शिकार, चोरी आदि करने भी (जयानंद के मना करने पर भी) जाने लगा । सहस्रकूट नामक पल्ली का मालिक महासेन था । वह चंडसेन का शत्रु था। एकबार सिंह के साथ चंडसेन महासेन के साथ युद्ध के लिए जा रहा था । उसने जयानंद से कहा "तुम मुझे सहायक बनो ।" जयानंद ने भी दाक्षिण्यता के कारण उसका कहना स्वीकार किया । चंडसेन ने अपने सभी भील्लों को साथ ले लिया, और महासेन के साथ घोरसंग्राम हुआ । दोनों सेनाओं के युद्ध में चंडसेन की सेना पीछे हटने लगी। तब सिंहसार लड़ने गया । तब महासेन की सेना पीछे हटने लगी ।