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थे। तरह-तरह के आश्चर्य दर्शन की इच्छा एक स्थान पर रहने से पूर्ण नहीं होगी । हमारा नगर पास में है, अगर पिता को मालूम होगा तो वापिस जाना पड़ेगा । और कौतुक की भावना भी पूर्ण नहीं होगी। अगर तुम नहीं आते हो तो मैं जाऊँगा पर तुम्हारा वियोग असहनीय होगा । उसकी भावना देखकर स्नेहवश जयानंद ने जाने की तैयारी कर ली। महल के एक द्वार पर एक थोक लिख दिया कि-"
"जलाशय में आठ मास क्रीड़ाकर हंस मानसरोवर में (वर्षाऋतु में) स्थिर होता है ।"
रात को दोनों भाई तलवार लेकर, निकल गये । प्रातः पति को न देखकर मणिमंजरीने खोज करवायी, पर पता न लगा। मणिमंजरी की नजर एक दिन उस द्वार पर गयी और वहाँ लिखित शोक पढ़ा, तब उसने अपने पिता व परिवार से कहा "वे कुतूहलवश देश देखने गये हैं, घुमकर वर्षाऋतु में वापिस आयेंगे । "तब सभी शोकमुक्त हुए ।"
दोनों भाई अरण्य में गये। वहाँ सिंह ने कहा मैं तो अधर्म से वन में कष्ट सहन कर रहा हूँ। परंतु तुमको इस वन में क्यों कष्ट सहन करने पड़ रहे हैं! तब जयानंद ने सिंहसार से हास्यपूर्वक कहा “तेरे जैसे अधर्मी की संगत से कष्ट सहन कर रहा हूँ। तेजोमय अग्नि लोहे के संग से पीटी जाती है। कर्पूर भी लहसून के संग से दुर्गंध देता है। तब क्रोध से मुस्कराते हुए सिंह बोला ‘इसी प्रकार अपना विवाद तीव्र हो रहा है। मैं पाप से और तू धर्म से सुख कहता है । यहाँ किसी का वचन प्रमाण नहीं हो सकता । क्योंकि सभी की वाणी अनेक प्रकार की है। परंतु जो आज द्रव्य के बिना भोजन करवाये, उसका पक्ष प्रमाण करे। जयानंद ने उसे स्वीकार किया । हर्षित सिंह बोला “आज मैं आगे के ग्राम में मेरी शक्ति की परीक्षा हेतु जा रहा हूँ। तुम किंचित् देरी से आना। अगर