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हूँ । परंतु उसके पास रहे हुए परिवार के कारण मैं उसे खा नहीं सकता । तू कौन है ? सत्य बोल । राजा ने सोचा 'यदि सत्य कहता हूँ तो यह मुझे खा लेगा । और असत्य बोलूं तो पाप का भागी बनता हूँ । प्राणों के लिए प्रण का नाश करना एक अधम कृत्य है। प्राणों से भी धर्म उत्तम है । यह राक्षस मुझे भक्षणकर दूसरे को नहीं खायगा तो दूसरे को बचाने का पुन्य तो मिलेगा ही।' इस प्रकार विचारकर राजा ने कहा-नंदीपुर का राजा मैं ही हूँ । आपको जैसा उचित लगे, वैसा करो । तब राक्षस बोला । रे सत्त्वशाली । मैं मुनि को नहीं खाता । तेरा यह मुनित्व कृत्रिम है या अकृत्रिम? राजा ने कहा "मैं तापस नहीं हूँ। ये वल्कल मैंने मुनि वचनों से अभी धारण किये है" तब राक्षस ने कहा-"तो अब मैं तुझे खा रहा हूँ । इष्ट देव को याद कर ।" राजा भी अपने शरीर पर का ममत्व छोड़कर पंच परमेष्ठि का स्मरण करता हुआ बैठ गया । राक्षस भयंकर हास्य करता हुआ, आकाश को कंपाता हुआ, दांतों को कट-कटाता हुआ राजा को मारने के लिए दौड़ा । फिर भी राजा अक्षुब्ध ही रहा । थोडी देर बाद राजा आँख खोलकर देखता है तो नंदीपुर में ही सेवकों के साथ स्वयं को देखा । अरण्य आदि को न देखकर और अपने ऊपर पुष्टवृष्टि होती देखकर सोचा 'क्या यह सब इन्द्रजाल था' ?। उस समय एक यक्ष प्रकट होकर बोला । "मैं तेरे नगर के बाहर (उद्यान में जनता द्वारा पूजित) रहता हूँ । मेरा मित्र मुझे मिलने आया । मैं उसके साथ उसके गाँव में गया । वहाँ उन ग्रामवालों की परीक्षा ली । फिर उसने कहा 'तेरे नगर के लोग कैसे है? तब मैंने कहा 'मेरे नगर में राजा प्रजा सभी सत्यवादी उत्तमपुरुष हैं ।' फिर हमने तुम्हारी परीक्षा ली । यह सब तेरी परीक्षा के लिए किया था । तुमको धन्य है । तुमने प्राण नाश का अवसर आने पर भी व्रत न छोड़ा । यक्ष ने राजा को एक