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तब जयानंद ने हंस और काक की कथा कहीं ।
धन्यपर ग्राम में एक सरोवर था । वहाँ जलचर प्राणी को देखकर एक कौआ पंख भीग जाने से उड़ने में असमर्थ होकर जल में डूबने लगा, तब एक हंसी ने करूणा से प्रेरित होकर अपने पति हंस को उसे बचाने को कहा । हंस ने उसे बचा लिया। तब स्वस्थ होकर कौआ उस हंस के जोड़े को अपने स्थान पर ले गया । फल लाकर उनका आदर-सत्कार किया । थोड़ी देर बाद हंस के साथ हंसी जाने लगी तो कौए ने कहा-'कहाँ जा रही है' कौए ने उसे रोकी । हंस ने कहा-'यह मेरी प्रिया है, तेरी नहीं ।' कौए ने कहा 'यह मेरी है' हंस बोला 'रंग में भिन्नता कैसे? 'कौए ने कहा-बहन समान रूपवाली होती है। अन्य कुलोत्पन्न प्रिया तो अन्य रूपवाली होती है। अगर विश्वास न हो तो ग्राम वालों को पूछ ले । उनका वचन प्रमाण है। हंस ने उसका कहना माना। फिर हंस-हंसी को वहाँ ही रखकर | कौआ किसी ग्राम में गया और मानवीय भाषा में अपना विवाद बताकर बोला । हे लोको! असत्यसाक्षी से भी मेरी बात सत्य कहना । नहीं तो स्त्रियों के मस्तक पर रहे घड़ो में अशुचि करूँगा । पशुओं के घाव पर चोंच मारकर उनको दुःख दूंगा । नर नारी के मस्तक पर बैठकर शीघ्र चला जाऊँगा । धूप में रखे धान्य को खा जाऊँगा । बालकों के हाथ से भक्ष्य पदार्थ खींच लूंगा । इत्यादि बाते कहीं। धर्माधर्म से अज्ञात होने से उसकी बातें ग्रामवासियों ने स्वीकार कर ली। फिर दोनों वहाँ आये। न्याय मांगा और उन ग्रामवासियों ने डरके मारे झुठी साक्षी दे दी। हंसी कौए को दे दी। तब हंस को दुःखी देखकर कौवा बोला हे। मित्र! तेरी प्रिया को तु ले ले। तेरा द्रोह मैं नहीं करूँगा । इस प्रकार मैंने ग्रामवासियों की परीक्षा की है। फिर कौआ ग्रामवासियों से बोला । 'हे लोको! किंचित् कारण से तुम जैसे झुठ साक्षी देनेवाले को इह-परलोक में दुःख होगा। हिंसादि सभी पापों