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बुलाकर गाढ़ क्रोध से कहा "रे दुर्विनीत! प्रतिदिन प्रजा को पीड़ित करता है। हमारे निर्मलकुल को कलंकित करता है। घर में भी दुष्ट चेष्टा करता है । निषेध करने पर भी नहीं रुकता है तो चला जा कहीं दूर इससे आगे यहाँ रहेगा तो 'मैं तेरा अन्याय सहन नहीं करूँगा ।" ऐसा सुनकर सिंहसार ने सोचा 'मेरे अकेले के देशांतर जाने से जयानंद राजा एवं प्रजा के अनुराग से राजा हो जायगा । यदि उसे भी साथ ले जाऊँ तो राज्य देने के समय राजा मुझे बुलायेंगे । राजा के लिए हम दोनों के अलावा राज्य योग्य अन्य कोई नहीं है। ऐसा सोचकर जयानन्द को मायापूर्वक कहा "भाई । अपनी उन्नत्ति के लिए हम देशान्तर चलें । वहाँ अद्भुत पदार्थ देखने को मिलेंगे । नयी-नयी कलाएं सीखने को मिलेगी । भाग्य की परीक्षा होगी । स्वजन दुर्जन का ज्ञान होगा। अनेक तीर्थों की यात्रा होगी। शरीर क्लेश सहन करनेवाला बनेगा। ठगों के कार्यों को देखकर निपुणता प्राप्त होगी । ऐसे गुण देशान्तर गये बिना नहीं आते । मैं तेरे वियोग को सहन न कर सकने से अकेले नहीं जाना चाहता । अतः चल । अपने पिता को बिना पूछे ही जायँ, नहीं तो अंतराय होगा ।"
जयानन्दकुमार सौम्यप्रकृतिवान था । सरलता से सिंहसार के वचनों को अकृत्रिम मानकर उसके कथनानुसार तलवार हाथ में लेकर किसी को कहे बिना चला । कई कोस जाने के बाद धर्म-अधर्म के कथा प्रसंग पर जयानंद ने कहा "धर्म के प्रभाव से अपार लक्ष्मी, प्रशंसनीय वाणी, सौभाग्यशाली शरीर, हाथों में शक्ति प्राप्त होती है और चारों दिशाओं में यश फैलता है। जो आर्हत् धर्म को भजता है उनको धर्म सुख देता है, विपत्तियों का नाश करता है। अमंगल को नष्ट करता है। व्याधि का नाश करता है। कल्याण करता है। इसलिए धर्म ही कल्याणकर है। सिंहसार ने कहा । भाई । तेरे वचन सत्य है परंतु वर्तमान
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