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जयानन्द विश्वानंददायक, तीनखंड का अधिपति, अनेक जीवों पर उपकार कर्ता, न्यायी, धर्मी, लक्ष्मीवान् , यशवान् और मोक्षगामी है ।"
राजा ने सामुद्रिकशास्त्री का कथन मन में धारणकर उसका सत्कारकर उसको जाने की अनुमति दे दी ।
एकबार जयराजा ने विजय को नैमित्तिक के सब वचन कहे। उस समय एक दासी कमरे के बाहर खड़ी थी । उसने सुन लिया। इधर राजा यथावसर सिंहसार की परीक्षा कर लेता था । उसे अपने पुत्र के लक्षणों का परिचय हो गया । सिंहसार उन्मत्त होकर, बाजार में भी क्रीड़ा करने चला जाता था। स्त्री पुरुषों के आभुषण हर लेता था । मार्ग में अश्व को दौड़ाकर नारीयों के घड़े फोड़ देता था । रूपवान नारियों का अपहरण कर लेता था । सिंहसार के इस प्रकार के अन्याय प्रवृत्ति से जनता ने राजा को शिकायत की। राजा ने उनको आश्वस्तकर भेजे ।
राजा ने सिंहसार को बुलाकर धिक्कारा । दो तीन बार राजा ने उसे टोका । एकबार तांबूलदासी राजा को तांबूल देने जा रही थी। उसको सिंहसार बलात्कार से रोककर तांबुल लेने लगा। तब कुपित होकर दासी ने कहा "रे दुष्ट ! नैमित्तिक ने कहा वह सत्य है।" कहा है
नदी किनारे वृक्ष चिरकाल तक नहीं रहता, दुर्जन से प्रीति चिरकाल तक नहीं रहती । पापात्मा के पास लक्ष्मी चिरकाल तक नहीं रहती, अतिलोभी की धर्मप्रीति चिरकाल तक नहीं रहती और स्त्रियों के हृदय में रहस्य की बात चिरकाल नहीं रहती । दासी ने सब कुछ कह दिया ।
सिंहसार उस समय अन्य मनस्क होकर गया । दासी ने राजा को सिंहसार की हरकत बता दी । राजा ने अपने पुत्र को