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सोचा आज पौषध उत्सर्ग से लिया है । प्राण जाय तो जाय
परंतु प्रतिज्ञा का भंग कैसे करें ? "
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'प्राण सभी जगह सुलभ हैं, शुद्ध धर्म दुर्लभ है । अतः प्राण जाने के प्रसंग पर शुद्ध धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए ।' बहुत कहने पर भी जब राजा व मंत्री को बाहर निकलते न देखा तब दूसरे पौषार्थि सब बाहर आ गये । इधर राजा व मंत्री ने अग्नि का प्रकोप देखकर, लोगों का भयारव सुनकर सागारी अनशन स्वीकार कर लिया । इतने में देखते हैं तो न तो अग्नि हैं और न भयारव है । परिवार भी स्वस्थ स्थित है । राजा और मंत्री विचार करते हैं कि हमे क्षुभित करने के लिए किसी देव ने अग्नि भय दर्शाया है । इतने में वहाँ पुष्प वृष्टि हुई । उन दोनों को प्रणाम करते हुए, चारों दिशाओं को उद्योतित करते हुए दो देव प्रकट हुए । और बोले 'सौधर्मेन्द्र ने आपके व्रत की प्रशंसा की । हम परीक्षा करने आये । आपको दृढ़ जानकर हम आपको नमस्कार करते हैं । वहाँ रत्न सुवर्ण की वृष्टिकर देव स्वस्थानक गये । पौषध का कालपूर्ण होने पर दोनों ने पौषध पारकर जनमुख से धर्म प्रशंसा सुनते हुए, घर जाकर पारणा किया । श्रावक की ग्यारह प्रतिमा वहन की । अंतिम समय में अनशन पूर्वक आराधनाकर पंचपरमेष्ठि स्मरण पूर्वक आयु पूर्णकर शुक्र देव लोक में शक्र के सामानिक देव हुए । मंत्री पत्नियाँ भी वहीं देव की मित्र देव हुई । वहाँ भी सम्यक्त्व सहित नंदीश्वर तीर्थादि की यात्रा आदि धर्मकृत्य करते हुए, तीर्थंकर प्रभु की देशना सुनते हुए देवायुष्य पूर्णकर रहे थे । पुरोहित जीव आयु पूर्णकर नरक में गया । अनेक भव भ्रमणकर विप्र हुआ । तापस होकर अज्ञान तपकर ज्योतिष्क धूमकेतु देव हुआ । अतिबल मुनि मोक्ष में गये ।
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