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सिंहसार नगर से निकाला गया । वह जहाँ-जहाँ गया वहाँ आपत्ति, दुर्भिक्ष, आदि भय उत्पन्न हो जाते थे । निमित्तज्ञों के द्वारा दुर्भिक्षादि विपत्तियों में निमित्त सिंहसार को जानकर वहाँ-वहाँ से निकाला जाता था। पापोदय से सर्व व्यसन में आसक्त कहीं चोरी करते हुए पकड़ा गया और उसके फलरूप में मारा गया। सातवीं नरक में गया । वहाँ से पुनः नरक ऐसे अनेक बार नरक में जायगा। फिर अनेकभव तिर्यंच के, अनेकभव नीच जाति में मानव के कर, पुनः पुनः पाप करता हुआ परिभ्रमण करेगा । ऐसा पाप का फल जानकर भव्यात्माओं को पाप कार्य से निवृत्त होना चाहिए ।
हे राजन् ! तेरे साथ जिनकी दिक्षा होगी, वे सभी स्वर्गादि में जाकर विदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष में जायेंगे । यह सब मैं मेरी बुद्धि से नहीं कहता हूँ। किंतु महाविदेह में विचरने वाले जिनेश्वर को मैं वंदन करने गया था। तब मैंने उनके मुख से यह सब वर्णन सुनकर तुझे प्रतिबोध देने के लिए शीघ्र यहाँ आया। तूने मुझे पूर्वभव | में शुद्ध धर्म का ज्ञान करवाया था । इसी कारण मैं भी उस ऋण से मुक्त होने के लिए तुझे प्रतिबोधित कर रहा हूँ। हे राजन्! अब बोध प्राप्तकर इस संसार रूपी दावानल से मुक्त होकर चारित्र ग्रहण | करने के लिए उद्यम करना चाहिए ।"
इस प्रकार चक्रायुध राजर्षि के द्वारा कथित देशना श्रवणकर परम वैराग्य को पाये हुए जयानंद राजा ने कहा "आप यहाँ अल्पावधितक रूकिये । मैं राज्य की व्यवस्थाकर आपके पास चारित्र ग्रहण करना चाहता हूँ । फिर नगर में जाकर पुत्र कुलानंद को राज्यारूढकर, हितशिक्षा देकर, उसके द्वारा कारित अष्टाहिन्का महोत्सव द्वारा जयानंद राजा और उसके साथ उसके हजारों पुत्र-पौत्र, हजारों राजा, अंत:पुर से रतिसुंदरी आदि हजारों