________________
"यदि आत्मा का हित चाहता है, तो स्वामी द्रोह और परस्त्री की वांछा छोड़ दे।" "अब तो वह भी पश्चात्ताप करता था। आँसू गिराता था। रतिसुंदरी ने कहा "अब तो छूटने के लिए पश्चात्ताप करता होगा। उसका तो कोई अर्थ नहीं । वास्तविक पश्चात्ताप होगा, तो ही नरकादि दुःखों से बचेगा ।" "वह बार-बार क्षमायाचना करता था। तब रतिसुंदरी ने करूणा लाकर, बंधन छुड़वाकर, औषधि से दासी द्वारा नर रूप में किया । और उसके मस्तक पर 'जयानंद दास' इस नामका पट्ट बंधवा दिया । फिर पड़दे में उसे रखकर पूछा तब उसने कहा "जयानंद राजा तो विजयपुर के विजयनृप के पुत्र है। अभी लक्ष्मीपुर में अपने पिता के साथ अर्ध भरत के स्वामी बने हैं। उन्होंने आपको लाने के लिए भेजा है। मैं उनके द्वारा प्रदत्त पल्यंक और औषधि के द्वारा यहाँ आया
और रूप परावर्तकर आपका रूप देखकर मुग्ध होकर यह कार्य किया । उसका फल मैंने भोगा । अब आपने मुझे परस्त्री गमन का नियम देकर मेरा उद्धार किया है। आप पल्यंक पर बीराजमान होकर लक्ष्मीपुर पधारो।" रतिसुंदरी ने कहा "मैं पर पुरुष का मुँह भी नहीं देखती, तो तेरे साथ आने की कोई बात नहीं है। तू अपने स्थान पर जाकर मेरे पति से कहना कि मैं आपके साथ ही आऊँगी । मैं निरंतर आपका ही ध्यान कर रही हूँ। आपने हजारों कन्याओं से शादी की है, पर मुझे भूलना मत। मुझे लेने | आप शीघ्र पधारना । इतनी बातें उनसे कह देना । फिर रतिसुंदरी ने पति के समाचार पूछे। उसने यहाँ से जाने के बाद की सारी बातेंकर रतिसुंदरी को आनंदित कर दी। फिर वहाँ से लक्ष्मीपुर आया और सारे समाचार कहे। स्वयं ने जो किया वह भी सत्य सत्य कहा। फिर जयानंद रत्नपुर जाकर रतिसुंदरी को लेकर अपने | नगर में आया। स्वागत पूर्वक नगर प्रवेश किया। शेष प्रियाओं