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भी शीलभंग नहीं करती । वह स्वप्न में भी शीलभंग की बात नहीं सोचती । मुझे इसे सजा देनी है।' ऐसा सोचकर उस पर प्रीतिभाव बढ़ाया और एकबार उसने उस से कहा द्रव्य के बिना काम कैसे हो? तब उस मायावी नारी ने कहा "वह आपको बहुतसारे रत्न देगा ।" उसने पहले रत्नादि मंगवाये । रत्न देखकर उसने सोचा 'ये रत्न तो मेरे पति के द्वारा दिये होने चाहिए। शायद मेरे पति ने इसे मुझे लेने भेजा होगा और यह मेरे रूप से मुग्ध होकर मुझे पाना चाहता है? मैं इस स्वामी द्रोही को सजा दूंगी।' उसने उसे आने को कहलवाया। वह आया। दासी के द्वारा उसके पादप्रक्षालनादि करवाकर मणि मय पल्यंक पर बिठाया । फिर उसने स्वामिनी को बुलाने को कहा, तब दासी ने कहा "हाँ अब उनको भेजती हूँ ।" रतिसुंदरी ने. दासी के द्वारा तैयार करवायी हुई अनेक द्रव्यों से युक्त मदिरा पान करवाने को कहा । दासी ने ले जाकर वह मदिरा बड़े प्रेम से पिलायी । उसने आकंठ पी । थोड़ी देर में वह उस पलंग पर लेट गया । फिर उसके शरीर की खोज़ दासी ने ली, तब उसे दिव्य औषधि मिली । हर्षित होकर दासी ने उसे ले जाकर रतिसुंदरी को दी। रतिसुंदरी ने उस औषधि को लेकर सोचा 'यही औषधि मेरे पति के पास थी। इसी औषधि से मेरी माता को शूकरी बनायी थी। इसीसे इसने महिला का रूप बनाया था । या तो इसने पति के पास से किसी उपाय से ली। या मेरे पति ने औषधि देकर यहाँ भेजा होगा? जो कुछ भी हो सभी ज्ञात हो जायगा।' फिर प्रातः उसके मस्तक पर औषधि रखकर मर्कट (बंदर) बनाकर लोहेकी शृंखला से बांधकर बारबार ताड़ना दी । उसको नचाकर कहा-"अब तुझे भट्टी में डालूंगी। चूल्हे के पास ले जाती और कहती" अय! स्वामी द्रोह और परस्त्री इच्छा का फल भोग।" उसे उपदेश भी देती थी ।