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दूसरे दिन मायावी स्त्री ने चक्रायुध की सेना को कहा
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कि भय भीत न हो, पलायन भी मत करो, जयानंद राजा आपके राजा को मुक्त कर देगा । आप स्वस्थ रहो।" इधर मायावी स्त्री ने उसे (चक्रायुध को) नागपाश छोड़कर ज्वालामालिनी प्रदत्त बेड़ियों से बांधकर औषधि जल से व्रण सज्ज कर, वज्रपिंजरे में डालकर राजसभा में ले आया । चक्रसुंदरी ने अपने पिता को छोड़ने के लिए कहा जयानंद ने पवनवेग से कहा "ओ महाभाग ! उस मुकुट और कंकण को लाकर इसको दो । जिस से यह तो पिंजरे में रहकर भी यह करने में समर्थ है। मैं तुम्हारी उत्सुकता में विघ्नकर नहीं बनूंगा । इस प्रकार उसकी वाणी सुनकर चक्रायुध रूदन करने लगा । उसे रोता देखकर पवनवेग ने चक्रायुध से कहा "रो मत! तुम हमारे चिरकाल के स्वामी हो । आप केवल नमस्कार कर दो, यह कृपालु तुम्हें छोड़ देगा । "चक्रायुध ने कहा अगर तुझे मुझ पर भक्ति हो तो असि दे । जिससे मैं अपना मस्तक छेदकर मुक्त हो जाउँ ।" पवनवेग ने कहा " हे नाथ! आप शास्त्रज्ञ होकर यह कैसी अज्ञता की बात कर रहे हो । आपको स्त्री ने बांधा ऐसा क्यों सोच रहे हो ? क्या ऐसा पराक्रम, विद्या, गुण आदि एक स्त्री में हो सकता हैं? इतना भी आपने न समझा । यह विश्व विजयी जयानंद भूप हैं । तुमने स्वयं जो गर्वित वचन कहे, उसका ही यह परिणाम भुगतना पड़ा है कि एक स्त्री से तुम जीते गये । यह बताने के लिए जयानंद ने ही स्त्री का रूप लिया है। यह शत्रु नहीं है । शत्रु तो क्रोध, अमर्ष, गर्व आदि हैं । उनको छोड़कर इसकी आज्ञा स्वीकार करें । यह तुम्हें छोड़ देगा | चक्रायुध ने अन्य गति न होने से उसकी आज्ञा स्वीकार की । पवनवेग ने राजा से कहा आप अपना स्वाभाविक रूप प्रकट करो और चक्रायुध को छोड़ो।" उसने अपना स्वाभाविक रूप प्रकट
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