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२१८७०, रथ २१८७०, अश्व ६५६९० पदाति १०९३५० मिलाकर एक अक्षौहिणी में २१८७००। इतनी संख्या होती है ।)
नारी ने प्रथमदिन पवनवेग के पुत्र वज्रवेग को सेनापति बनाया । फिर स्त्रीरूपी जयानंद ने जिनेश्वर की पूजा कर पंच परमेष्ठि का स्मरणकर, शस्त्र सज्ज होकर युद्ध के लिए चला । योगिनी राक्षसी आदि अनेक देव देवियाँ भी युद्ध देखने आकाशमार्ग में आ गयीं । चक्रायुध ने चण्डवेग को सेनापति बनाया । पांच दिन तक भयंकर युद्ध हुआ। चक्रायुध के अनेक पुत्र और महारथी का मायावी स्त्री के पक्षधर विद्याधरों ने नाश किया। मायावी स्त्री प्रतिदिन अपनी औषधि के जल से दोनों सेनाओं के सैनिकों को सज्ज करवा देती थी। चक्रायुध अतीव क्रोधित होकर युद्ध कर रहा था। पर प्रतिदिन विजय मायावी स्त्री की हो रही थी। फिर चक्रायुध और मायावी स्त्री के बीच घनघोर युद्ध हुआ ।
एकबार चक्रायुध ने उसे कहा “रे रंडा । तू मारी जायगी। मेरी पुत्री को छोड़कर चली जा । व्यर्थ में जिद में मत मर ।" मायावी स्त्री ने कहा "तेरी पुत्री का अपहरण पुनः लौटाने के लिए नहीं किया है। इज्जत बचाना चाहता हो तो एकदिन के लिए 'जयानंद का दास' इतना लिखा हुआ मुकुट धारण कर ले। तेरी पुत्री और तुझ को छोड़ दूंगी।" उसके बाद घमासान युद्ध हुआ। एकबार तो चक्रायुध भी विचार करने लगा कि, यह दिखने में स्त्री है, परंतु बल में तो शुक्र को भी हरा दे-वैसी है। यह कोई विश्व विजयी है। क्या वैताढ्य का राज्य मैंने इसके लिए अर्जित किया है?'' पुनः जोश में आकर युद्ध करने लगा । अंत में छट्टे दिन शाम को, चक्रायुध को मायावी स्त्री ने मुद्गर का प्रहारकर, नागपाश से बांध दिया । उसकी सेना मोहित कर दी । चक्रायुध को पवनवेग को सोंप दिया ।
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