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की जीत और देव की हार हुई | देव ने थककर मल्लयुद्ध के लिए ललकारा, और दोनों का मल्लयुद्ध प्रारंभ हुआ । कुमार ने उसे थकाकर नीचे गिराकर, उस पर चढ़कर बोला "बोल, अब भी लड़ना है ? तब देव ने पराजय स्वीकार कीया । देव ने स्त्री को लाकर उसे सौंप दी । देव ने कहा "तेरे समान विक्रमी, न्यायी और दयालु इस विश्व में कोई नहीं है। मैं आपको क्या दूं? ऐसे देव के कहने पर जयानंद ने कहा " अनंतभव दुःखनिबंधन रूपी मिथ्यात्व का त्याग कर।" फिर उसे उसका पूर्वभव सुनाया सुनते ही उसने अपने पूर्वभवों को देखा । फिर उसने शुद्ध धर्म की व्याख्या पूछी । जयानंद ने उसे देव - गुरु धर्म का विशुद्धस्वरूप समझाया । उसने शुद्धधर्म को स्वीकारा । देव ने कहा "मैं अब तेरे उपकार से उऋण कैसे होउँ ? फिर भी मैं तेरे अनुरूप यह चिंतामणि रत्न, बहुरूपिणी विद्या, कामित विद्या दे रहा हूँ ।" प्रार्थना भंग भीरू राजा ने उसके द्वारा प्रदत्त विद्यादि ग्रहण किये । देव से कहा "हे सुरराज ! तुझे धन्य है, जो अल्प प्रयास से प्रतिबोधित हो गया । चंद्रगति से मैत्री करवायी । राजा ने उसकी पूजा की। देव अन्तर्धान हो गया । राजा ने चंद्रमाला चंद्रगति को दी। फिर वह अपनी कन्या से पाणिग्रहण करने की प्रार्थनाकर अपने स्थान पर गया । तब पवनवेग ने उसके कान में कहा “मेरी कन्या का पाणिग्रहण करवाऊँ, तब तू तेरी कन्या लेकर आ जाना। फिर जयानंद ने योगिनी दत्त अलंकारादि अपने पिता के धैर्य के लिए एक खेचर के साथ लक्ष्मीपुर भेजे । जयानंद पवनवेग आदि विद्याधरों के साथ शाश्वत चैत्यों को वंदन के लिए गया । फिर वहाँ सभी चैत्यों को वंदनाकर पवनवेग के साथ नगर में आया । पवनवेग ने अत्याग्रह कर अपनी कन्या और चंद्रगति की पुत्री की
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