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हूँ तीनों काल की बातें बता सकता हूँ तब राजा ने जयानंदकुमार के विषय में पूछा, तब उसने जयानंद के विषय में सारी बातें कहीं ।। अब वह सिंहसार के साथ लक्ष्मीपुर नगर में हैं।'' राजा ने उसे अधिकाधिक पारितोषिक देकर विदा किया। फिर प्रधान पुरुषों को जयानंदकुमार को बुलाने हेतु पत्र लिखकर भेजा। पत्र में लिखा था ।
"हे राजन्! हमारे जीवन समान हमारा पुत्र जयानंदकुमार आप के वहाँ सुखपूर्वक है ऐसा निमित्तज्ञ से जाना । आपका हम पर महान् उपकार है, कि आपने हमारे पुत्र को महान् उन्नत्ति करवायी है। आज से आप हमारे तीसरे भाई हो । अब हमारा निवेदन है कि जयानंदकुमार को शीघ्र भेजकर, हमारे चक्षु युगल को तृप्त करने का पुण्योपार्जन करें ।"
उन्होंने कुमार का पत्र उसे दिया । कुमार ने पत्र पढ़ा । पत्र में लिखा था । "हे वत्स! हमारे और इस राज्य के जीवितव्य तुम ही हो। तू खल सिंहसार के साथ किसी को कहें बिना चला गया। नीच का संग ठीक नहीं । उन्नति के शिखर पर चढ़ा तू हमें भी भूल गया है। हम तेरे वियोग में दिन वर्ष के समान व्यतीत कर रहे हैं। अब हमें संतुष्ट करने के लिए हमे देखकर पानी पीना ।" ।
इस प्रकार लेख का भावार्थ ज्ञातकर उसने सोचा 'धिक्कार है मुझे । मैं माता-पिता के लिए दुःखदायक बना । वृक्ष, पत्र पुष्प से पल्लवित होकर पथिक को विश्राम देता है,
और मैं संपत्तिवान बनकर भी माता-पिता को सुख के स्थान पर दु:खकर हुआ हूँ। अब मैं जाकर माता-पितादि परिवार को सुखी करूँ। यह निर्णयकर उसने अपनी पत्नियों से कहा । पत्नियोंने पति की बात का समर्थन किया ।'
पहरेदार ने राजा को ये समाचार दिये । श्रीपति राजा ने