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नगर है। श्रीपति नामक राजा राज्य करता है। उसकी अलग-अलग रानियों की तीन कन्याँ हैं। उन तीनों का विधाता ने उत्तम परमाणुओं को लेकर निर्माण किया है। उन्होंने जैन पंडितों के पास अध्ययनकर चौसठ कलाओं में प्रवीणता प्राप्त कर ली है। पिता और पाठक के आर्हतत्वपने से वे तीनों धर्म पर पूर्ण प्रीतिवाली हैं। उसमें प्रथमा नाट्यसुंदरी ने प्रतिज्ञा की है कि जो जैनधर्म की क्रिया रूचिवाला मुझे नाट्यकला में जीतेगा, उसे ही पति रूप में स्वीकारूँगी। दूसरी गीतसुंदरी ने गीतकला में, तीसरी नादसुंदरी ने नादकला में मुझे जो जीते उसी के गले में वरमाला पहनाऊँगी, ऐसी प्रतिज्ञा की है। अनेक राजकुमारों ने और श्रेष्ठिपुत्रों ने तथा अनेक अन्य लोगों ने नृत्य, गीत और वीणा वादन का अध्ययनकर महिने महिने में परीक्षा दी, पर तीनों राजकुमारीयों की कला के आगे उनकी कला फीकी ही रही। फिर भी सभी ने प्रयत्न चालू रखा। यह बात सुनकर कुमार ने सोचा भाग्य की परीक्षा यहाँ भी कर ले।' उसने पल्यंक को कहीं छुपाकर वामन का रूप बनाया। नगर में जहाँ अध्यापक अध्ययन करवाता था, वहाँ आया। राजकुमार आदि अध्येताओं ने उसकी हंसी मज़ाक उड़ाते हुए पूछा "आप कौन हैं? कहाँ से पधारे हैं? आने का प्रयोजन क्या है ? तब उसने कहा “मैं क्षत्रिय हूँ। आप जिस कार्य के लिए आये हैं, उसी प्रयोजन से मैं भी आया हूँ। भाग्य साथ देगा, तो सफलता मिलेगी। अध्येताओंने उसकी मज़ाक उड़ाते हुए कहा "हे भाग्यशाली ! राजकुमारीयाँ आपकी ही राह देख रही थीं ।' पंडितजी से कहा “पढ़ाओ इसे, जिससे आपको यश-कीर्ति प्राप्त होगी। ऐसा वर कन्याओं को बड़े भाग्योदय से ही मिलता है।" इस प्रकार अध्येताओं के हास्य वचनों से लज्जित गुरु ने कुमार से कहा "भाई! तू इन कलाओं के लिए योग्य नहीं है। कुमार ने