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| पालन सम्यक् प्रकार से करने लगा। इधर कमलप्रभ राजा ने कुमार
की दान शक्ति, वीर्यशक्ति, क्षमा शक्ति आदि से आकर्षित होकर उसका नाम "क्षेत्रवैश्रवण'' रख दिया। कुमार के प्रभाव से राजा की राज्य लक्ष्मी बढ़ने लगी ।
एकबार जयानंदकुमार चैत्र मास में मित्रों के साथ यथारूचि क्रीड़ा कर रहा था । वहाँ उसने आकाश मार्ग से अनेक विद्याधरों को (देवों के समान) जाते देखा । उसने सोचा 'ये कहाँ जा रहे हैं? तभी एक विद्याधर अपनी पत्नी के साथ वापी के पास उतरा। वह अपनी पत्नी को जलपान करवाना चाहता था। कुमार ने जाकर पूछा । उसने कहा 'नंदीश्वरद्वीप पर शाश्वत अर्हत् चैत्यों को वंदन करने हेतु (अष्टाह्निका महोत्सव करने हेतु) जा रहे हैं। कुमार ने सोचा 'धन्य है इनको जो शाश्वत तीर्थ की यात्रा करने का लाभ प्राप्त कर रहे हैं।' मैं यहाँ क्रीड़ा में व्यर्थ समय बरबाद कर रहा हूँ। फिर महल में जाकर अपनी पत्नियों से कहा "मैं नन्दीश्वरद्वीप पर जाकर जिन चैत्यों को वंदनकर न लौटूं तब तक तुम दोनों कुलवृद्धाओं के साथ समय बिताना । उन दोनों ने पति की इच्छा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। वह पल्यंक पर बैठकर नंदीश्वरद्वीप की ओर चला। जंबूद्वीप की जगती के आगे उसका पल्यंक जाने में असमर्थ रहा। खेचर आगे बढ़ गये। कुमार धर्मान्तराय से खिन्न होकर वापिस लौटा और सोचा 'कहीं गगन गामिनी विद्या की साधना करूँ। इतने में पल्यंक पर से नीचे स्वर्णमय चैत्य देखा तो नीचे उतरा। चैत्य में विधिपूर्वक स्तवना कर बाहर आया । आगे एक नगर देखा । वहाँ उसने हाथ में वीणा, वंशी आदि वाद्य लेकर रूप-यौवन युक्त राजकुमारों को देखा । गीत-नृत्यकला का अध्ययन करते अनेक राजपुत्रों को देखा। उसने नगर में एक पुरूष को पूछा उसने कहा "यह लक्ष्मीपुर