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। राजा ने भी कहा "इस दीन, कृपण और प्रणाम करनेवाले पर क्रोध करना उचित नहीं है। क्योंकि सत्पुरुषों का क्रोध प्रणाम तक रहता है। इसको छोड़ और स्वरूपस्थ कर । तेरी कोप शक्ति देखी । अब कृपा शक्ति भी बताओ ।" विप्र ने कहा अगर यह नास्तिकता छोड़कर जैनधर्म स्वीकार करे, तो छोड़ता हूँ । नहीं तो नहीं।" राजा ने उस मर्कट बने राजा को पूछा " यह कहता है, वैसा करोगे" उसने चेष्टा से कहा "यह जैसा कहेगा वैसा सब करूँगा ।" फिर मायावी विप्र ने औषधि के प्रयोग से उसे रूपस्थ कर दीया । बेड़ियाँ भी तोड़ दी । आदरपूर्वक आसन पर बिठाया । इस प्रकार देखकर कमलप्रभ, कमला आदि सभी हर्षित होकर पद्मरथ को प्रणाम करने लगे । तब लज्जा से नम्र होकर पद्मरथ आँखों से अश्रु गिराता हुआ बोला " मैं प्रणाम योग्य नहीं हूँ। मैं महापाप युक्त कलंकी हूँ । नहीं देखा और नहीं सुना ऐसे निंदित कार्य मैंने किये हैं । उसका फल मैंने यहाँ ही भोग लिया ।
कहा है। 'उग्रपाप - उग्रपुण्य का फल शीघ्र मिलता है ।" पुत्री को भिल्ल को देने और उसे अंधी करने रूप पाप का फल मुझे मिल गया । वह जीवंत है या नहीं यह भी मुझे मालुम नहीं । पुत्री हत्या का पाप मुझे खा रहा है और साथ में इस सामान्य विप्र ने मेरे करोड़ों सुभट पास में होते हुए मुझे बंधी बना दिया, बंदर बना दिया । इस पराभव के दुःख को भी मैं सहन नहीं कर सकता। अपने सैनिकों को उसने आदेश दिया 'मेरे लिये चिता सुलगा दो जिसमें प्रवेशकर मैं अपनी जीवन लीला समाप्त कर दूं । तब कमलाप्रभ राजा ने कहा 'हे नरोत्तम ! खेद मत करो यह सामान्य निप्र नहीं है, यह कोई दिव्य पुरूष है, इसको तो समय आने पर जानोगे ।' फिर विप्र ने कहा 'यह पाप का फल कुछ नहीं, पाप का फल तो नरकादि में भोगना पड़ेगा । इस पाप से मुक्त
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