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है, वैसा उपदेश तेरे राजा को देना था । जिससे वह क्षत्रिय कुल को कलंकित न करता । उसको तो क्षत्रियों की पंक्ति में से बहिष्कृत कर दिया है। उसके साथ स्वजनता दुःखदायक है। ऐसे पापी की सुख संपदा भी दीर्घकाल नहीं रहती। और इसका पराक्रम तो घर में होता है, संग्राम में नहीं। वह स्वयं तृणतुल्य है। उसके सैन्य को तूने समुद्र की उपमा दी, तो मैं वड़वानल हूँ। उसके सैन्य को पी लूंगा । कौन तेरे कौल राजा से भयभीत होगा। वह यदि राज्य और जीवितव्य से उद्विग्न हो तो युद्ध के लिए तैयार हो। मैं तो बहन और भानजी के अपमान से सजा देने की भावनावाला था ही। तूने भूखे को भोजन के समान निमंत्रण दे दिया है। अब शीघ्र तू जा । मेरे ये वचन कह देना कि कौल कुल में मैं कन्या नहीं दूंगा। यथारूचि करना ।'' राजा के ये वचन सुनकर ब्रह्मवैश्रवण बोला "अहो, यहाँ राजा और सैनिकों की क्षमा अद्भुत है, जो ऐसे वचन बोलने वाले दूत को भी गला पकड़कर सभा से बाहर नहीं निकाला जाता है।'' इतना सुनते ही एक सैनिक ने उसे गले से पकड़कर सभा से बाहर निकाल दिया । वह अपमानित होकर चला गया । पद्मपुर में जाकर राजा को नमक मीर्च मिलाकर सारी बातें की। राजा का क्रोध बढ़ा । उसने युद्ध की घोषणा कर दी। पद्मपुर नगर से प्रयाण किया। उस समय उसके साथ तीस हजार हाथी, तीस हजार रथ, तीस लाख घोड़े और तीस क्रोड़ पदाति सैनिक थे। उसको विशाल सेना के साथ आता हुआ सुनकर कमलप्रभ राजा मंत्रियों के साथ विचार करने लगा। राजा ने कहा "हमने, क्रोध
और मान में इस बलवान से वैर तो बांध लिया है, पर उसके साथ यद्ध कैसे करे ?" मंत्रियों ने कहा "किया वह अकिया नहीं होता, क्षत्रिय पराभव भी सहन नहीं कर सकता, दृष्ट दोषवाले इसे कन्या भी कैसे दे? इसलिए दुर्ग सज्ज किया जायँ, धान्य का संग्रह किया