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शास्त्रों को पढ़े हैं, अनेक साधुओं को दान दिया हैं परंतु ऐसी सूक्ष्म आचार प्रियता कहीं नहीं देखी । '
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धर्मरुचि ने कहा "मुनिभगवंत को वन्दन करने के लिए चले ।" मंत्री ने कहा, "किये हुए अपराध वाले हम मुनि भगवंत को मुख कैसे बताये?" धर्मरुचि ने कहा " ये मुनि दोषदर्शी नहीं होते । इसलिए उनके दर्शन में कोई आशंका नहीं करनी चाहिए ।" सभी गये और मुनि भगवंत को वंदन किया । मुनि भगवंत ने धर्मलाभ की सर्वोत्तम आशीष दी । मंत्री ने कहा 'अज्ञान के कारण हमने जो कटु वचन कहकर आपकी अवहेलना की हैं, उस अपराध की क्षमा करो । क्योंकि क्रोधित मुनि तप के द्वारा क्रोड़ो मनुष्यों को जला सकते हैं । परंतु हम मूढ़ मानवों पर आप कृपा करो । उन मंत्री पत्नियों ने भी बार- बार क्षमायाचना की । मुनि ने कहा "मुझे कोई क्रोध नहीं है । परंतु सूझते शब्द का और आहारशुद्धि का स्वरूप तुम नहीं जानते हो ।" तब मंत्री ने कहा " 'उसका तात्त्विक स्वरूप समझाये ।" मुनि भगवंत ने कहा 'आंखे दो प्रकार की हैं । बाह्य चर्मात्मक जो पास एवं दूर के पदार्थ का अल्पज्ञान करवाती है । दूसरी अभ्यन्तर ज्ञान - दर्शन स्वरूप आँख जो सूक्ष्म, पास, दूर सभी का संपूर्णज्ञान करवाती है । शुद्धि के दो भेद हैं । बाह्य व अभ्यंतर । बाह्यशुद्धि पदार्थ की निर्मलता । अभ्यन्तर शुद्धि = दोष रहितता । हम दोनों दृष्टियों से दोनों प्रकार की शुद्धि देखते हैं । हमारे लिए ४२ दोष रहित आहार ही शुद्ध है । तुम्हारे घर का आहार छर्दित, निक्षिप्त और पीड़ित जीवयुक्त और दोषयुक्त होने से नहीं सूझता' ऐसा कहा था । श्रावक एवं मंत्री ने पूछा " हे मुनि भगवंत ! यह सब ठीक है परंतु मोदक में तो कोई दोष नहीं था ।" मुनि ने कहा " ये मोदक रात में बने हैं उसमें धूमव्याकुलित सर्प के मुंह से गरल गिरने से विषाक्त हैं । मुझे
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