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गले में मणि की माला नहीं शोभती। मुझे काणी-कुब्जी, काली कोई दासी दे दो क्योंकि काक की प्रिया काकी होती है, हंसी नहीं। यह | संपूर्ण चंद्रमुखी, कमलनयना, सर्वांग सुंदर, लावण्य रस कूपिका, राजहंस गतिवाली, मधुरध्वनिवाली, ६४ कलाओं में प्रवीण, अपने रूप से रतिप्रीति रंभा आदि को भी मात करनेवाली आपकी कन्या कहाँ और मैं कहाँ? मैं दर्भग, काष्टभारवाहक, निर्लक्षण-शिरोमणि, कुरूपवान् पुरुष? अतः आप पुनः विचारें ।" इधर लोकों में भी हाहाकार हो रहा था । मंत्रियों ने भी कहा "हे राजन् ! दुर्विनीत पुत्री पर भी आपका इतना क्रोध उचित नहीं है। आप मालिक हैं। आपको यह धर्म विरुद्ध और लोक विरुद्ध कार्य हितकर नहीं होगा।" राजा ने कहा "इसमें स्वल्प भी मेरा दोष नहीं। इस भिल्ल को इस जैन धर्मिणी ने स्वयं वरा है। राजाओं में तो रीति है कन्या स्वयंवरा होती है। पिता साक्षी मात्र होता है।" तब राजा ने भिल्ल से कहा "हे भिल्ल ! मेरा कहा अन्यथा नहीं होता। यह सर्वकलाओं की ज्ञाता भाग्य सुख को भोगे।" पुत्री को भी राजा ने कहा-“हे पंडितमानिनी । इस स्वयं वरे हुए भिल्लपति की सेवा करती हुई, पिता की अवज्ञा, कुलाचार की अवज्ञा, अविनयादिका फल भोगना । अर्हत् धर्म के फल को भोगना।" तब पुत्री ने कहा "हे तात। इस कार्य में आपका दोष नहीं है। सुख दुःख का कर्ता कर्म के अलावा कोई नहीं है। मैं पिता की आज्ञाकारिणी आपके कुल को उज्ज्वल ही करूँगी। कारण कि पिता का दिया हुआ कैसा भी कुरूप पति की देव समान सेवा करनी कुलीन स्त्री का कर्तव्य है।" उसके ऐसे वचन से अग्नि में घी सदृश राजा का क्रोध और प्रज्ज्वलित हुआ । फिर | दोनों को भोजन करवाया और भोजन के बाद अपनी पुत्री को नयन घातक विष मिश्रित ताम्बूल दिया। भिल्ल को शुद्ध तांबूल दिया । फिर भूपति ने कहा "वधू सहित तू अपने स्थान पर जा।" भिल्ल भी राजाज्ञा लेकर नृपपुत्री सहित स्वस्थान गया । वह राजपुत्री भी छाया के समान
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