________________
कुवलयमाला-कथा
[71] राजकुमार अपने निवास भवन के समीप आ पहुँचा। इधर वह बाला भी राजकुमार के आँख ओझल होते ही कामदेव के प्रहार से जिसके शरीर के समस्त अवयव शिथिल हो गये हैं, ऐसी होती हुई, अपने छोड़े हुए लम्बे और गर्म निःश्वासों के धुएँ से शयनगृह की चित्र-विचित्र भीतों को काली करती हुई इधर-उधर लौटने लगी। हरिणी के समान नेत्र और सुकुमार शरीर वाली वह बाला बहुत देर तक अपने इष्ट मित्र की भाँति राजकुमार का मन में स्मरण करती रही। उस विरहिणी को स्वच्छ सुकोमल शय्या में, सुन्दर उद्यान में या स्पृहणीय चन्द्रिका में भी शान्ति न मिली। उसे चन्द्रमा सूर्य समान जान पड़ने लगा। चन्दन रस अग्नि और रात्रि दिन सी मालूम होने लगी। इस प्रकार सभी वस्तुएँ उसे उल्टी ही प्रतीत लगीं। ठीक ही कहा है
"योगिनां चन्दनाद्यैर्यैः, शीतैः प्रीतिः प्रजायते। तनुज्वलति तैरेव, सततं विप्रयोगिणाम्।"
अर्थात्- संयोगी जनों को जिन शीतल चन्दन वगैरह वस्तुओं से प्रीति होती है, वियोगियों को वे ही वस्तुएँ निरन्तर जलन का कारण हो जाती हैं।
एक बार राजकुमार उस हृदयहारिणी बाला के संगम के उपाय रूपी जल से अपने असह्य विरहाग्नि तप्त शरीर को शान्त करने के विचार कर रहा था। इसी समय सूर्य ने अपनी किरणों को चारों और बिखेरते हुए पश्चिमाचल का अवलम्बन किया। चारों ओर अन्धकार फैल गया। कामदेव से पीड़ित राजकुमार ने सोचा- 'बिना दुःख सहे सुख नहीं मिल सकता।' वह खड़ा हो गया। उसने अपने वस्त्र मजबूत बाँधा, कमल पत्र के समान श्याम और यमराज की जिह्वा की तरह भयङ्कर कटारी कमर में बाँधी, दाहिने हाथ में शत्रुओं का सत्यानाश करने वाला खड्गरत्न धारण किया, कन्धे पर ढाल लटकायी और काले कपड़े से सारा शरीर ढंक लिया। इस प्रकार तैयारी करके वह बाला के घर के पास आया। वहाँ पहुँचकर किसी उपाय से ऊपर चढ़कर उस झरोखे में आया। वहाँ आते ही उसने शय्या पर बैठी हुई मृगनयनी को देखा। जलते हुए स्वच्छ दीपक से उसके अवयव देदीप्यमान हो रहे थे। वह टेढ़ा मुख रखकर सेज पर बैठी थी। कुमार ने जमीन पर ढाल के ऊपर तलवार रखकर दबे पाँवों धीरे-धीरे आकर उस सुनयना के दोनों नयन अपने दोनों हाथों से मूंद लिये। उसे ऐसा
मोहदत्त की कथा
द्वितीय प्रस्ताव