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कुवलयमाला-कथा
[47] के वध के अत्यन्त भीषण पाप की शान्ति के लिए कौशाम्बी नगरी में आया। हे नरेश! यह बेचारा अज्ञान और मूढमनस्क मानभट लोगों के कथनानुसार तीर्थ किया करता है। परन्तु यदि चित्त शुद्ध हो तो मनुष्य घर में रहकर भी कर्मों का क्षय कर सकता है। इसलिए सब प्रकार से मन को शुद्ध करना चाहिए। बिना मानसिक शुद्धि के सुपात्र को दिया हुआ दान तथा की हुई क्रियाएँ राख में घी होम करने की तरह निष्फल हैं।"
__ इस प्रकार गुरु के वाक्य सुनकर मानभट ने मान का त्याग कर दिया और भगवान् धर्मनन्दन गुरु के चरण-कमल का सहारा लिया और प्रतिबोध पाकर प्रवज्या-दीक्षा माँगी। सूरि ने उत्तर दिया- "हे वत्स! निरन्तर निरतिचार आचार का पालन करना अति दुष्कर है क्योंकि उसमें केशों का लोंच करना पड़ता है, सदा अहिंसा आदि व्रतों का अतिचार सहित पालन करना पड़ता है, अठारह हजार शीलों का भार उठाना पड़ता है, नीरस भिक्षा द्वारा लाया हुआ अन्न खाना पड़ता है, प्रासुक, एषणीय और नि:स्वादु जल पीना पड़ता है, धरती पर सोना पड़ता है। इसके सिवाय चाहे उपसर्गों के ढेर के ढेर आ जावें तो भी जरा भी शिथिलता नहीं कर सकते। लोहे के चना चबाना सहज है, पर जिनेश्वर कथित व्रतों का पालन करना सहज नहीं है।"
इस प्रकार मान के विषम विष के आवेश को नष्ट करने में समर्थ श्रीधर्मनन्दन गुरु के उपदेश-वचन रूपी अमृत का गले तक पान करके मानभट ने दीक्षा स्वीकार कर ली।
॥ इति मानभट-कथा।
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मान पर मानभट की कथा
द्वितीय प्रस्ताव