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कुवलयमाला-कथा
[39] चौथा - ब्राह्मणों के सामने पाप के निवेदन करने से ही शुद्ध हो जाता है। पाँचवाँ - अनजान में यदि पाप किया हो तो उसका दोष नहीं लगता।
छठा - अपनी शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर दे और दाढ़ी मूछ मुँडाकर, बर्तन हाथ में लेकर भीख माँगते गङ्गा नदी जा।
उनके इस प्रकार परस्पर विरोधी कथन सुनकर मुझे चार ज्ञानवाला समझकर चण्डसोम मेरे पास आया है।
इस विषय में सब को विचार करना चाहिए कि तीर्थ स्नान करने से किस प्रकार शुद्धि हो सकती है? जल से शरीर का मैल तो छूट जाता है, परन्तु आत्मा का मैल - पाप नहीं छूटता। यदि कदाचित् स्नान से और स्मरण से गङ्गा नदी पाप नष्ट करती हो तो जल में रहने वाले जन्तुओं को पाप ही न लगेगा और यदि कदाचित् केवल स्मरण करने से यह जगत् पावन होता हो, तो जल से आत्मा की शुद्धि करने का विचार निरी मूढता है"। अतः इस प्रकार के विचार को महात्मा सहन नहीं करते। महात्मा जब इन विचारों की जाँच करते हैं, तो वे मिथ्या सिद्ध होते हैं। मूढ जनों ने इस प्रकार के अनेक वाक्य जाहिर कर रक्खे हैं, किन्तु वीतराग सर्वज्ञ ने जो कहा है, वह मनोयोग पूर्वक किया जाय, तो वही पाप के प्रक्षालन करने में समर्थ है। इस प्रकार चण्डसोम अपना हाल सुनकर मुनिराज को हाथ जोड़, प्रणाम कर बोला-“हे प्रभु! आपने जो कहा सत्य है। यदि मैं शुद्धि करने वाले सर्वज्ञ-वचनों का पात्र होऊँ या योग्य होऊँ तो मुझे दीक्षा दीजिये।" उसके इस प्रकार कहने पर मुनिराज ने उसे योग्य जान दीक्षा दे दी।
॥ इति चण्डसोम-कथा समाप्ता।
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क्रोध पर चण्डसोम की कथा
द्वितीय प्रस्ताव