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कुवलयमाला-कथा है। पहली नरकगति में तीन तरह की तकलीफें हैं- क्षेत्र से उत्पन्न होने वाली, परस्पर जीवों के द्वारा होने वाली और परमाधार्मिक देवों द्वारा दी जाने वाली। इन तीन तरह की वेदनाओं से पैदा होने वाले दुःखों का वर्णन लगातार करोड़ वर्ष में भी नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति में भी अनेक प्रकार के दुःख होते हैं। अत: जिनेश्वर भगवान् के कथनानुसार करने से ही इस लोक में धर्म अर्थ काम की प्राप्ति होती है और परलोक में मोक्ष पुरुषार्थ सिद्ध होता है। इसलिए हे राजन्! पहले श्रावकधर्म को धारण करके फिर साधुधर्म पालने में मन लगाना।"
यह सुनकर अनुकूल अवसर लगा समझ, वासवमन्त्री भगवान् धर्मनन्दन को हाथ जोड़कर विनय पूर्वक बोला "हे स्वामिन् ! समस्त दुःखों का स्थान चार गति-रूप संसार बताया है, सो पहले संसार का निमित्त कारण क्या है? कि जिससे जीव उसमें परिभ्रमण करते हैं?"
धर्मनन्दन गुरु बोले- "मन्त्रीश्वर! तथा पुरन्दरदत्त राजन् ! संसार में जीव के परिभ्रमण करने के जो कारण जिनेन्द्र भगवान् ने बताए हैं, उन्हें सुनो- क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। वश में न किये हुए ये चार कषाय इस संसार रूपी दुःखसमुद्र के कारण हैं। इनमें से क्रोध रूपी अग्नि आत्मा में रहे हुए गुण समुदाय को जला डालती है, अतः वह क्रोध बाह्य वस्तुओं को जलाने वाली अग्नि से भी बढ़कर है। चतुर मनुष्य जीवों के क्षय करने में निर्दय क्रोध रूपी सूर्य को अपने अन्त:करण रूप घर में कभी स्थान नहीं देता। सर्प से डसे हुए का इस संसार में प्रतीकार (इलाज) है, परन्तु क्रोधरूपी दुर्दान्त सर्प से काटे हुए का कोई प्रतीकार है ही नहीं। चाण्डाल का स्पर्श हो जाय तो उसकी शुद्धि सुवर्ण जल से हो सकती है, परन्तु क्रोध रूपी चाण्डाल के स्पर्श से किसी प्रकार शुद्धि हो ही नहीं सकती। जिसका अन्तःकरण शान्तरसरूप जल से भीगा हुआ है, उसके हृदय में किसी समय कोप के आरोप (वेग)रूपी अग्नि धधक ही नहीं सकती। जिनेश्वररूपी मेघ से उत्पन्न हुए समतारूपी अमृत के संसर्ग से जो क्रोधाग्नि को शान्त करते हैं उन्हीं का धर्म हरा-भरा बना रहता है। यदि प्राणियों को किसी भी समय क्रोध न उत्पन्न हो, तो मोक्षलक्ष्मी उनके हस्त-कमल में अवश्य वास करे। लबालब भरे हुए क्रोध
द्वितीय प्रस्ताव