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कुवलयमाला-कथा
[25] रन्ध्र (पुरुषत्व चिह्न या स्त्रीत्व चिह्न) पर दो अपरन्ध्र (गुदा) पर, दो छाती पर
और दो मस्तक पर इस प्रकार दस ध्रुवावर्त होते हैं। दस से कम या अधिक हों तो गुणों में न्यून या अन्यून समझा जाता है। घोड़े के लक्षण जानने वालों का ऐसा मत है और ऐसे लक्षणों से हीन घोड़ा दुःख देने वाला कहा जाता है।
कुमार इस प्रकार निवेदन कर रहा था कि इतने में राजा ने कहा-"बेटा! किसी दूसरे मौके पर अधिक सुनूँगा।" इतना कहकर राजा पवनावर्त घोड़े पर सवार हो गये, कुमार उदधिकल्लोल पर चढ़ा, महेन्द्रकुमार गरुड़वाहन पर चढ़ा और दूसरे राजकुमार दूसरे-दूसरे घोड़ों पर सवार हो गये। लम्बा चौड़ा राजद्वार भी उस समय अनेक ऊँचे-ऊँचे हाथियों, घोड़ों और पैदलों से संकीर्ण हो गया था। अब जिसके मस्तक के ऊपर सफेद छत्र धारण किया हुआ था और जिस पर सुन्दर तथा चञ्चल चामर ढोरे जा रहे थे ऐसा वह राजा चतुरङ्ग सेना के चक्र से घिरा हुआ राज्यलक्ष्मी के रास्ते (राजमार्ग)से चला। श्रेष्ठ धैर्य गुण से युक्त राजा कौतुक देखने आये हुए आदमियों की आँखों को आनन्द देता हुआ पल भर में नगर से बाहर आ गया। फिर सारी सेना को अलग रखकर स्वयं अश्वक्रीड़ा करने लगा। कुमार ने घोड़े की धौरित आदि पाँच प्रकार की चाल का क्रम देखने के लिए अपने घोड़े को अश्वकेलि में छोड़ा। उसे देख लोगों ने जय जय की ध्वनि की। इतने ही में सब राजपुत्रों के देखते-देखते पल भर में अनेक ताम्रपत्रों के समान श्याम रंग के आकाश तल में उदधि कल्लोल उड़ गया। दक्षिण दिशा की ओर दौड़ते हुए घोड़ों के वेग से ऐसा मालूम होता था कि पेड़ भी उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं। जो वस्तुएँ निकट थीं वे अभीअभी दूर दिखाई देने लगीं। इस अतिवेग से हरण किये जाने वाले कुमार ने विचारा- "अहो! यदि सचमुच यह घोड़ा है तो आकाश में कैसे उठा? और यदि कोई देव है तो घोड़े का रूप क्यों नहीं त्यागता है? 'ऐसा विचार कर कुमार ने परीक्षा करने के लिए यमराज की जिह्वा जैसी तेज कटार से निर्दयता के साथ घोड़े की कुंख में प्रहार किया। घोड़े के शरीर से रक्त की धारा बह निकली। उसके शरीर की सारी सन्धियाँ शिथिल पड़ गयीं वह धरती पर गिर पड़ा। उसके शरीर ने कुमार का हरण किया था। इसलिए कुमार के हरण करने से 'तू पापी है' ऐसा कहकर जीवितव्य ने उसके शरीर का त्याग कर
प्रथम प्रस्ताव