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कुवलयमाला - कथा
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रानी ऐसे वचन सुनकर कुछ कुछ मुस्कुराती हुई अमृत के समान वचन बोली - "स्वामिन्! आपके चरण कमलों की कृपा से मुझे किसी प्रकार की कमी नहीं है। अनेक राजा अपने मस्तक के मुकुट की मणि से जिनके चरणों का स्पर्श करते हैं ऐसे आपकी पत्नी हो करके मैं अपने को भाग्यशालिनी समझती हूँ । किन्तु यहाँ रहते हुए मालवराजकुमार को देखकर आश्चर्य होता है कि उस पुण्यवती मालवराज की पत्नी के ऐसा पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ है और आप जैसे स्वामी होने पर भी मुझ अभागिनी के कोई पुत्र नहीं है । इस प्रकार विचारतेविचारते मुझे अपने ऊपर उदासी और आपके ऊपर कोप हुआ ।" यह सुनकर चकित चित्त वाले और नीति में प्रचेता मुनि के समान राजा ने विचार किया - 'अहो ! देखो स्त्रीजाति की मूर्खता ! इस प्रकार के झूठे और असम्बद्ध प्रलापों से कामिनियाँ कामी जनों के चित्त को हर लेती हैं, ऐसा मन में सोचकर राजाने कहा- "देवि, यदि तुम्हारे कोप का यही कारण है तो इसका क्या उपाय है? पुत्र का होना भाग्य के अधीन है। इसमें पुरुषार्थ या किसी दूसरे उपाय की दाल नहीं गलती - कुछ नहीं चलती, कहा भी है
अनुद्यमाय क्रुध्यन्ति, स्वजनाय कुबुद्धयः ।
दैवायत्ताः पुनः सर्वाः, सिद्धयो नेति जानते । ।
अर्थात् खोटी समझ के मनुष्य उद्यम से रहित स्वजन पर क्रोध करते हैं , पर यह नहीं जानते कि सारी सिद्धियाँ भाग्य के अधीन हैं।
इसलिए हे देवि ! ऐसी हालत में बिना कारण ही क्यों कोप करती हो?" रानी ने कहा " नाथ ! बिना कारण मुझे क्रोध नहीं आया, वरन् कारण पाकर ही हुआ है। आप प्रयत्न करके किसी देवता की आराधना करके पुत्र की याचना करें तो क्या हमारा मनोरथ पूरा नहीं हो सकता? अवश्य हो सकता है। अतः देवता की आराधना करके मुझ अभागिनी पर कृपा कीजिये" इतना कहकर रानी राजा के पैरों पर गिर पड़ी। राजा ने हाथ उठाया और कहा - "प्रिये ! जो तुमने कहा है, वह मैं अवश्य करूँगा । धीरज रक्खो । सन्ताप को दूर करो और उत्तमोत्तम सुखों को भोगो । प्रिये ! मैं आज ही रात में महादेव के सामने तीक्ष्ण तलवार से अपने मांस का होम करके, या कात्यायिनी देवी के निकट अपने मस्तक को भेंट चढाकर या महाश्मशान में किसी भूत-प्रेत-पिशाच आदि को
प्रथम प्रस्ताव