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कुवलयमाला-कथा
[209] हो जायेगा। ये सभी आपके पुर से सम्बन्ध रखने वाली ही हैं। आपको देखकर पहिचान जायेंगी। तो इनको दर्शन देना ही चाहिए।" कुमार ने कहा -"तो इस विद्यासिद्ध का सिद्धकृपाण और खेटक ले आओ, पश्चात् दर्शन दूँगा।" उसने कहा -“कुमार! यहीं ठहरे रहना जब तक मैं सिद्धखेटक और सिद्धखड्ग लाऊँ" यह कह कर "चली गयी। तब कुमार ने विचार किया- 'शायद यह मेरी मौत के लिए कोई अन्य उपाय सोचती है, तो यहीं ठहरना उचित नहीं है', ऐसा कुमार विचार कर खेटक लिया हुआ और खड्गरत्न स्वीकार किया हुआ पीछे लौट कर ठहर गया। तब खड्ग और खेटक लेकर आयी हुई उस स्थान पर कुमार को न देखती हुई विषण्ण मन वाली को कुमार ने कहा"भद्रे ! जल्दी से आ जाओ मैं यहाँ ठहरा हूँ।" यह सुनकर उसने कहा "इस स्थान से आप कैसे अन्यत्र चले गये?" उसने कहा- "क्योंकि बुद्धिमानों को स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। यह शास्त्रीय वचन है। इस लिए पीछे लौटकर स्थिर हो गया।" "कुमार! आप राज्यपदवी के योग्य हो जो महिलाओं का विश्वास नहीं करते" यह कह कर उसने उसके सामने जमीन पर कौक्षेयक = कृपाण और खेटक रख दिया। राजकुमार ने अपना खड्ग
और खेटक उसके हाथ में दे दिया। राजकुमार ने प्रदक्षिणा करके अद्वितीय रूपवान् उन दोनों को स्वीकार कर लिया। उसने कहा- "यह खड्गरत्न कुमार की विजय के लिये हो।" कुमार ने कहा -'भद्रे! वह दुष्ट विद्यासिद्ध अभी कहाँ है?" उसने कहा -“कुमार! किस निगम (रास्ते) से यहाँ आप प्रविष्ट हुए थे?" उसने कहा- "बड़ के पेड़ के कोटर के छेद से।" उसने कहा -"मैं द्वार नहीं जानती, यह फिर जानती हूँ जिस द्वार से तुम आये हो वह भी उसी से आयेगा, तो तुम तैयार होकर इस दिव्यखड्ग से उसका शिर काट देना, अन्यथा वह तुम्हारे लिए दुःसाध्य हो जायेगा" कुमार हाथ में कृपाण लिया हुआ छिद्र के द्वार पर स्थित हो गया।
इस बीच में वह दुष्ट विद्याधर प्रभात का समय समझ कर धवलगृह के ऊपर शय्या पर सोयी हुई अकेली उसी राजकुमार की पत्नी को अपहृत करके ले आया। उसी बिल में प्रवेश करते हुए उसको देख कर राजपुत्री ने पुकारा - "हे वैरिगुप्त! तुम्हारी प्रिया चम्पावती इस नाम से कही जाने वाली मैं इससे अपहृत कर ली गयी हूँ इससे मुझे यहाँ बचाओ।। ८८।।" इस प्रकार उसके
चतुर्थ प्रस्ताव