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कुवलयमाला-कथा
ने पुररक्षक को बुला कर आदेश दिया- "अरे! नगर के मध्य चोर का महान् उपद्रव है।" उसने भी कहा - "चुराये जाते हुए पदार्थ नहीं देखे जाते हैं और चोर भी दृष्टिगोचर नहीं होता है । केवल यही प्रात:काल सर्वत्र सुना जाता है कि पुर चुरा लिया गया। मैं आपके आदेश से पुर की रक्षा करता हूँ, पर किसी भी प्रकार चोर की प्राप्ति नहीं हुई तो स्वामी किसी अन्य का आदेश दीजिये" उसके ऐसा कहने पर नरेश्वर ने समस्त आस्थानमण्डल को देखा ।
तब हाथ जोड़े हुए वैरिगुप्त ने निवेदन किया- "देव ! यदि मैं सात रात्रि में उस चोर को आपके पास नहीं लाऊँ तो अग्नि में प्रवेश कर लूँगा ।" तत्पश्चात् राजा का आदेश प्राप्त कर सुगुप्त विधि से प्रकोष्ठ में खेटक स्थापित किये हुए हाथ में तलवार लिये हुए चतुष्पथ, गली, गोपुर, उद्यान, सरोवर, बावड़ी, देवकुल, पानीयशाला और मठों में विचरण करते हुए वैरिगुप्त के छः दिन व्यतीत हो गये और फिर उसको वह चोर उपलब्ध नहीं हुआ । तब सातवें दिन वैरिगुप्त ने चिन्तन किया-'मैंने सर्वत्र पुर को ढूँढ लिया, पर चोर नहीं मिला, तो यहाँ कौन सा उपाय करना चाहिए? और मुझ को प्रातः प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं होने से मृत्यु आ जाएगी, तो आज रात्रि में श्मशान में महामांस बेच कर किसी वेताल को साध कर चोर का वृत्तान्त पूछता हूँ,' यह सोचकर वैरिगुप्त श्मशान भूमि पर पहुँचा और वहाँ महासाहसी उसने छुरी से दोनों जाँघों से माँस काटकर हाथ में रखकर तीन बार कहा 'अरे रे राक्षसों पिशाचों ! सुनिये यदि आपको महामाँस से कार्य है तो यह ग्रहण कर मुझको चोर का वृत्तान्त बताओ ।" वेताल कहा -" महामाँस मैं लूँगा।" कुमार ने कहा - " यह प्रस्तुत है परन्तु चोर का पता बताओ ।" कुमार द्वारा महामाँस अर्पित कर देने पर उसने कहा
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'भद्र! यह माँस थोड़ा है और अपक्व है। यदि अग्नि से पकाया हुआ आप देते हैं तो ले लूँ ।" कुमार ने कहा - " चिता के पास आओ जिससे स्वेच्छा से अग्नि में पका हुआ अपना माँस आपको दे दूँ। " वेताल बोला -" ऐसा है । " तब वे दोनों चिता के समीप आये । कुमार ने दूसरा अपना महामांस पका हुआ उसको दिया और उसने स्वेच्छा से उसे खा लिया । इस बीच में गौतम ने पूछा - " भगवन् ! क्या पिशाच और राक्षस कावलिक आहार करते हैं या नहीं?" भगवान् ने कहा - " गौतम ! नहीं करते।" गौतम ने कहा- "यदि वे नहीं खाते हैं तो कैसे इसने महा-मांस खा लिया?" भगवान् ने कहा -" प्रकृति से ये
चतुर्थ