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कुवलयमाला-कथा
[205] जाते हैं- वह पद्मलेश्या से देवत्व को प्राप्त करता है। छठे ने कहा कि जमीन पर गिरे हुए ही आस्वादित कर लिये जाते हैं- वह शुक्ल लेश्या से सिद्धि के सुख का भागी बनता है। तब हे गौतम! देख तू कि एक भक्षण कार्य में छ:ओं का लेश्याभेद पृथक् और भिन्न कर्मबन्ध है। जो काटो पीटो तोड़ो इत्यादि कर्कश वचन बोलता है जिसके न दया होती है न सत्य होता है वह कृष्णलेश्य होता है। जो पञ्च अनार्य कार्य करता है, छठा फिर धर्मार्थ कार्य करता है वह नीललेश्य है। जो चार पापमय कार्य करता है और दो जो धर्मनिमित्त कार्य करता है वह कापोतलेश्य है। जो दो कार्य पाप के लिए और चार कार्य धर्म के लिए करता है वह पद्मलेश्य है। जो एक कार्य पाप के लिए और पाँच कार्य धर्म के लिये करता है वह शुक्ललेश्य है। उससे जीवत्व को प्राप्त कर लेता है।" भगवान् से कहे हुए उसको सभी सुर-असुर और नरेश्वरों ने वैसा स्वीकार कर लिया।
इस बीच में लम्बी भुजाओं वाले सुन्दर वेश वाले और वक्षःस्थल पर शोभित वनमाला वाले एक राजपुत्र ने समवसरण में भगवान् को प्रणाम करके कहा- "भगवन्! क्या वह सत्य है जो दिव्य वन्दी ने वहाँ मुझे निवेदित किया था। वह मङ्गल है अथवा अमङ्गल है?" भगवान् के कहा - "भद्र! वह सब ही सत्य है।" यह सुनकर भगवान् का आदेश प्रमाण' यह कह कर समवसरण से उसके चले जाने पर गौतम बोले-“हे नाथ! यह पुरुष कौन था? इसने क्या पूछा था?" तब भगवान् ने अनेक लोगों के प्रतिबोध के लिए कहा -"जम्बूद्वीप में भरतखण्ड में मध्यमखण्ड में ऋषभपुर नाम का एक नगर है। वहाँ चन्द्रमण्डल की किरणराशि के समान निर्मलकीर्ति और स्फूर्ति वाला चन्द्रगुप्त पृथ्वीपति है। उसका अन्य पराक्रमी वैरिगुप्त पुत्र है। उसको अन्य दिन सभा में बैठे हुए उस पृथ्वीस्वामी को आकर और प्रणाम करके प्रतिहारी ने निवेदन किया - "हे देव! नगर के प्रधान जन आपके चरणों का दर्शन चाहते हैं।" यह सुनकर राजा ने कहा -"शीघ्र ही भेज दो।" तब उसके साथ उन जनों ने प्रवेश करके
और कोई अपूर्व वस्तु समर्पित करके राजा को प्रणाम करके निवेदन किया'राजा तो दुर्बलों को बल देता है' यह आप देव समझिये। सारे ही नगर को किसी ने चोर लिया है, जो कुछ अच्छा है वह सारा रात में चुरा लिया जाता है।" राजा ने कहा -"तुम जाओ उस चोर को ही देखा जाता है।" तब राजा
चतुर्थ प्रस्ताव