SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुवलयमाला-कथा [175] जी! देह के साथ देह की छाया के तुल्य मैं भी पति के साथ जाऊँगी। आपके चरणों की सेवा का वियोग तो सुदुःसह है।। 1।। हे माताजी! मेरे द्वारा लगायी हुई लतायें जल सेचन के बिना उसी प्रकार पीली पड़ जाएंगी जिस प्रकार परदेश में गये हुए पतियों के वियोग में उनकी पत्नियाँ ।। 2 ।। हे माताजी! मेरे वियोग में शिखायुक्त यह शिखा मयूर ताल के साथ किसके द्वारा नचाया जाएगा? ।। 4।।" तब जननी के कहा-"हे पुत्री! अपने चित्त में क्यों खेद धारण करती है? तू तो नरेश्वर की सुता है, दृढवर्म की प्रिय सुता है।। 5 ।। तो पुत्री! खेद मत कर। हर्ष के स्थान पर इसके लिये कौन सा क्षण है? गङ्गाजी में स्नान का अवसर मिलने पर कौन कीचड़ में डुबकी लगाता है?।। 6।।" इस प्रकार कह कर तनया को अपनी गोद में लेकर अश्रुपूर्ण नेत्रों वाली जननी ने मस्तक चूम कर इस प्रकार शिक्षा दी।। 7।। "हे पुत्री! यदि तू अपनी गुणश्रेणि चाहती है तो पति के घर पहुँची हुई सदा बिना संशय के प्रिय ही बोलना।। 8।। सास आदि पूजनीय जनों के प्रति गौरव भाव बनाये रखना, सपत्नी जनों में भी उनके सदा अनुकूल बने रहना।। १।। उनकी सन्तानों को अपनी सन्तानों के सदृश देखना, आश्रितों पर कृपा करना और गर्व मत करना।। 10।। पति के भोजन करने पर भोजन और शयन करने पर शयन करना। नेत्र नीचे करके रखना और साड़ी से मुख को ढकी हुई रहना।। 11 ।। पति के दुःखी होने पर दुःखी और सुखी होने पर सुखी होना। कोपवती भी तू कभी कोप मत करना।। 12।। कभी भी तू पति के चरण कमलों के दर्शन करना मत छोड़ना। यह सभी सतियों के लिए अद्भुत मार्ग है।। 13।।" यह शिक्षा मस्तक पर धारण कर, माता-पिता को प्रणाम कर परिजनों से पूछकर कुवलयमाला वहाँ से कुमार के पास आ गई। तदनन्तर दूसरे दिन कुवलयमाला के साथ प्रस्थान किये हुए अनुकूल पवन वाले वामभाग में खर का स्वर हुए सव्यभाग में एक वर्ण वाले शुनक को उत्तीर्ण किये हुए और सर्वत्र चारुवचन का उच्चारण किये हुए कुमार ने चिन्तन किया-'हे भगवती प्रवचन देवता! यदि मैं पिताजी को नीरोग देख लूँ, राज्य को प्राप्त कर लूँ और सम्यक्त्व परिवृद्ध हो जाय तो कुवलयमाला के साथ प्रवज्या ग्रहण कर लूँगा, तो दिव्यज्ञान से जान कर वैसा उत्तम शकुन दे जिससे मुझे शान्ति हो।' ज्यों ही उसने चिन्तन किया त्योंही उसके सामने मणि और सुवर्ण से निर्मित और लटकते हुए मोतियों वाला एक छत्र किसी चतुर्थ प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy