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कुवलयमाला-कथा
कथा पाँच प्रकार की है - 1 सकल, 2 खण्ड, 3 उल्लाप, 4 परिहास और 5 वर। ये कथाएँ लोक में प्रसिद्ध हैं । जिसमें इन पाँचों का वर्णन होता है, संकीर्ण कथा कहलाती है। इस ग्रन्थ में संकीर्ण कथा कही जायगी । वर तीन प्रकार की है - 1 धर्मसंकीर्ण 2 अर्थसंकीर्ण और 3 कामसंकीर्ण । इस ग्रन्थ में धर्मसंकीर्ण कथा कही जायगी । धर्मकथा भी चार प्रकार की है - 1 आक्षेपिणी, 2 विक्षेपिणी, 3 संवेगजननी और 4 निर्वेदजननी । आक्षेपिणी अर्थात् मन के अनुकूल, विक्षेपिणी अर्थात् मन के प्रतिकूल, संवेगजननी अर्थात् वैराग्य उत्पन्न करने वाली, निर्वेदजननी अर्थात् संसार पर खेद उत्पन्न करने वाली। यहाँ संवेगजननी कथा कही जायगी। इस कथा का शरीर यह है कि इसमें सम्यक्त्व का लाभ रहा हुआ है, परस्पर मित्र का कार्य किया हुआ है और मोक्ष गमन रूपी सार भरा हुआ है । यह कथा - शरीर श्रीदाक्षिण्यचिह्न सूरि ने रचा है कथा का सारांश
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इस कथा का मुख्य नायक कुवलयचन्द्र है। पहले उसका जन्म, फिर उसके पूर्व देवमित्र द्वारा हरण किया जाना, निर्जन वन में कुवलयचन्द्र द्वारा सिंहदेव और मुनि का देखा जाना, मुनिराज से पाँच मनुष्यों के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनना, उस सिंह को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाना, सम्यक्त्व ग्रहण करके पाँचों का स्वर्ग में जाना, स्वर्ग में तरह तरह के भोग भोग कर फिर भरत क्षेत्र में जन्म लेना और एक दूसरे को बिना पहचाने ही केवली भगवान् के पास बोध पाकर संवेग प्राप्त करना तथा तीव्र तपस्या से समस्त कर्मों का नाश करके मोक्ष पाना, इत्यादि बातों का वर्णन इस कथा में किया गया है। श्री दाक्षिण्यचिह्न सूरि पर ' ह्री' नाम की देवी प्रसन्न हो गई थी । उसने जो वृत्तान्त सुनाया वही इस 'कुवलयमाला' नाम की कथा में गूँथा गया है। उसी के अनुसार असार वचनों वाले मैंने भी इसे रचा है । महात्मा पुरुषों को चाहिए कि वे इसे पढ़ें और सुनें। कहा भी है
निस्तेजसोऽपि माहात्म्यं, महानर्पयति श्रितः ।
भर्गसंसर्गतः पश्य, पावित्र्यं भस्मनोऽपि हि ।।
अर्थात्- वस्तु चाहे तुच्छ ही हो, परन्तु उसे यदि महापुरुष आश्रय दे देवें तो वही महत्त्व वाली समझी जाती है। देखिये, शिवजी के संसर्ग से राख भी पवित्र कहलाती है।
प्रथम प्रस्ताव