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कुवलयमाला-कथा
समान बड़ी होकर अब युवावस्था में आई है। उसके पिता ने उसके लिए, रूप, लावण्य और गुणों से युक्त अनेक राजकुमार ढूँढे परन्तु पुरुषों पर द्वेष रखने वाली कुवलयमाला ने किसी को भी पसन्द न किया । मैंने भी उसे अनेक प्रकार से समझाया परन्तु उसे किसी भी पुरुष से जरा भी अनुराग न हुआ । इससे उसके माता-पिता के मन में बहुत खेद हुआ । सब मन्त्री और राजपुरुष भी इसी प्रकार दुःखी हुए। एक बार एक प्रतीहार ने आकर राजा से कहा - "देव ! बाहर के उद्यान में कोई दिव्यज्ञानी विद्याधर मुनि पधारे हैं ।" महाराज कुवलयमाला को साथ लेकर सपरिवार वहाँ गये और मुनि को वन्दना की। मुनि ने धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देकर संसार का अनित्य आदि समस्त स्वरूप उपदेश देकर बतलाया । राजा ने फिर वन्दना करके उनसे पूछा कि मेरी यह पुत्री पुरुषों से द्वेष रखती है, तब किसके साथ कब और किस प्रकार ब्याही जायेगी?" मुनि ने अपने ज्ञान
अतिशय से समस्त वृत्तान्त जानकर उसके पूर्व भव में कौशाम्बी नगरी में मायादित्य द्वारा की हुई माया, वहाँ से स्वर्ग में उत्पन्न होकर प्रतिबोध करने के लिए किया हुआ संकेत, कुवलयमाला का जन्म, राजद्वार में अवलम्बित की हुई गाथा की पूर्ति की निशानी, जयकुञ्जर का वश में करना और कुवलयचन्द्र के साथ पाणिग्रहण आदि वह समस्त वृत्तान्त राजा से कहा । इसके पश्चात् मुनि आकाश मार्ग से विहार कर गये । उनके अनन्तर जयकुञ्जर को वश में करके और गाथा की पूर्ति करके तुम प्रगट हुए । अब तुम जब से आये हो, उसी दिन से कुवलयमाला तुम्हारे दुःसह विरह रूपी अग्नि से जल रही है, कामदेव के बाण से उसका शरीर जर्जरित हो गया है और जो वचन से कही नहीं जा सकती ऐसी काम की नवमी अवस्था ( प्राणसंदेह ) का अनुभव कर रही है। इसलिए उसने मुझे महारानी के साथ तुम्हारे पास भेजा है। "
कुमार ने कहा- बतलाइये मुझे क्या करना होगा ?
दासी - कुमार! यदि मुझसे पूछते हो तो मैं कहती हूँ कि यह सब बताने का अवसर वीत गया है, तो भी यदि तुम राज भवन के उद्यान में आओ, तो किसी तरह तुम्हारे दर्शन रूपी जल से बाला कुवलयमाला के विरह-ताप की क्षणिक शान्ति हो सकती है ।
महेन्द्र- ठीक है, इसमें क्या हानि है ?
भोगवती महेन्द्र का कथन सुनकर 'बहुत अच्छा' कहकर भानुमती के साथ वहाँ से चली आई।
तृतीय प्रस्ताव