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कुवलयमाला-कथा
[165] राजा ने पुत्र की नांई गोदी में बैठाकर उससे कहा-"कुमार तुल्य वत्स! तू ने कुमार को कहाँ देखा है? उसे देखे कितना समय हो चुका है?"
यह प्रश्न सुन संदेश लाने वाले दूत की भाँति तोते ने स्पष्ट अक्षरों में अश्वहरण से लेकर कुवलयमाला से सुशोभित विजयापुरी की ओर रवाना होने तक का आपका सब वृत्तान्त राजा से निवेदन किया। राजा यह वृत्तान्त सुनकर विकस्वर रोमाञ्च रूपी कवच से व्याप्त हो गये और अपने को प्रफुल्लित स्नेहसागर के मध्य में निमग्न मानने लगे। वे बोले-"आज राजकीर द्वारा बताये हुए पुत्र के कुशल वृत्तान्त से मुझे जितना आनन्द हुआ है, उतना कभी हाथियों, माण्डलिक राजाओं और घोड़ों से नहीं हुआ।" फिर उन्होंने आम आदि स्वादिष्ट फलों से शुक का सत्कार किया। जब शुक वहाँ से अपने निवासस्थान को चल दिया तो महाराज ने मुझसे कहा-"महेन्द्र! मैं विजयपुरी जाना चाहता हूँ।" मैंने निवेदन किया-"देव! वहाँ जाने की मुझे आज्ञा दीजिये, क्योंकि मार्ग विषम है, अतः आपका जाना उचित नहीं है।" यह सुनकर दूसरे राजपुत्रों के साथ तुम्हारी प्रवृत्ति के लिए मुझे यहाँ भेजा। मुझे यहाँ आये एक मास ग्रीष्म ऋतु का और तीन मास वर्षा ऋतु के बीत गये हैं। एक बार प्रभु के समान इन महाराजा (विजयसेन) को नमस्कार करके मैंने निवेदन किया"देव! राजा दृढवर्म के पुत्र कुवलयचन्द्र आपके पास आये हैं या नहीं?" महाराज ने उत्तर दिया-" इसकी मुझे जरा भी खबर नहीं है। परन्तु महेन्द्र! तू यहीं रहेगा तो कुछ दिनों में कुवलयचन्द्र से यही भेंट हो जायगी।"
इस प्रकार महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं त्रिक में, चतुष्क में, देवालयों में, प्याउओं में, अन्नक्षेत्रों में, उद्यानों में और विहारों में आपकी खोज करता हुआ यहीं रहा। आज मेरी दाहिनी आँख और दाहिना हाथ फड़का। आपके दर्शन भी हो गये।" इस प्रकार सब वृत्तान्त सुनकर राजा विजयसेन ने कहा-" कुवलयचन्द्र कुमार यहाँ आये यह बहुत अच्छा हुआ। कुमार! आपके कारण हम धन्य पुरुषों में भी धन्य हुए। अब आपके लिए जो डेरा चुना गया है, वहाँ जाओ। मैं ज्योतिषी को बुलाकर कुवलयमाला के पाणिग्रहण का मुहूर्त ठीक करके आपको कहलाता हूँ।" इतना कहकर राजा खड़ा हो गया। कुमार महेन्द्र को साथ लेकर अपने डेरे पर चला गया।
तृतीय प्रस्ताव