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कुवलयमाला-कथा था। कुमार रास्ता चलने के कारण बहुत थक गया था, अतः नगरी की उत्तर दिशा के भाग में विश्राम करने बैठ गया। उसने विचार किया-'गुरु महाराज द्वारा बतायी विजया नगरी में तो मैं आ पहुँचा, परन्तु कुवलयमाला से मुकालात कैसे हो?' ऐसा विचार कर कुमार उसी समय खड़ा हो गया और नगरी की
ओर रवाना हुआ। उस नगरी का घेरा ऊँचा सोने का बना हुआ था। उसमें नाना प्रकार के रत्नों के कँगूरे बने हुए थे। उसके दरवाजे मूंगा के बने हुए थे। नगरी में प्रवेश करके थोड़ा आगे बढ़ा कि कुछ पनिहारियों की तरह-तरह की बातें उसे सुनाई दी।
एक ने कहा- कुवलयमाला कुँवारी ही मर जायगी, उसे कोई नहीं ब्याहेगा।'
दूसरी- ब्रह्मा ने उसके विवाह की रात्रि बनाई ही नहीं, क्योंकि रूप, यौवन, विलास और सौभाग्य के घमण्ड से वह कुलीन रूपवान् और सुन्दर राजकुमारों को भी पसन्द नहीं करती।
पनिहारियों की ऐसी बातें सुनता हुआ कुमार आगे बढ़ा। रास्ते में अनेक देशों से आये हुए व्यापारियों की भाषा सुनता हुआ, दुकानों की पङ्क्ति के पास वणिकों की नाना प्रकार की बातचीत सुनता हुआ, तथा नगरी की स्त्रियों के श्वेत और निर्मल नेत्रों की माला से अर्चित होता हुआ वह अनुक्रम से विजयसेन राजा के राजद्वार के समीप आया। उसका द्वार मोर की पीछी के बने हुए सैकड़ों छत्रों से व्याप्त था और अनेक नौकर-चाकर उसमें निरन्तर आजा रहे थे। उसके उच्च प्रकार के घोड़ों ने राजद्वार की भूमि अपने कठोर खुरों से खोद डाली थी। बन्दी जनों का समूह उसके सैकड़ों गुणों की स्तुति कर कर रहा था। इसलिए सब दिशाएँ मुखरित (बोलती हुई) सी मालूम होती थीं। शत्रुओं के समूह को रोकने वाले हाथियों के गण्ड-स्थल (कपोल) से झरते हुए मद जल से उसका आङ्गन लथपथ हो गया था। कुमार ने वहाँ राजपरिवार को हथेली पर मुख-कमल रख कर चिन्तातुर देखा तो किसी राजपुरुष से चिन्ता का कारण पूछा। उस राजपुरुष ने उत्तर दिया-" हे महासत्त्ववान्! यह किसी विपत्ति की चिन्ता नहीं, वरन् राजा की पुत्री कुवलयमाला पुरुषद्वेषिणी हो गई है। उसने गाथा
तृतीय प्रस्ताव