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________________ [154] कुवलयमाला - कथा करता हुआ वह राजा एक बार अमावस्या के दिन सायंकाल वास भवन में जाकर कुछ विचार करता हुआ बैठा । इतने में एक पतंगा दीपक के पास आया। उसे देखकर स्वभाव से ही दयालु - हृदय राजा ने विचार किया–‘यह बेचारा पतंगा दीपक में गिर कर मर जायगा, मैं इसकी रक्षा करूँ।' ऐसा विचार कर उसने पतंगे को तीन बार खिड़की से बाहर किया परन्तु वह बारम्बार दीपक के पास आने लगा। राजा ने यह विचार कर कि किसी जीव का रक्षण यदि प्रयत्न पूर्वक किया जाय तो वह चिरकाल तक जीवित रहता है, एक खुले हुए करण्डक में उसे डाला और बन्द करके अपने सिरहाने के पास रख लिया। कुछ देर में राजा ने निद्रा का आनन्द लिया । प्रातः काल जागकर उसने उसको खोला तो उसमें एक छिपकली निकली, पतङ्गा दिखाई न दिया । उसने सोचा'छिपकली पहले ही से करण्डक में बैठी होगी और मालूम होता है, अवश्य इसी ने पतंगे को खा लिया है। अहो, किये हुए कर्म कभी छूटते नहीं हैं। जीवनपूर्व जन्म में शुभ या अशुभ जितने कर्म उपार्जन किये हैं, उतना फल उसे इस जन्म में प्राप्त हो जाता है।' ऐसा सोच करके वैराग्य में आगे बढ़े हुए राजा को यकायक जातिस्मरण ज्ञान हो गया । उसने अपना पूर्वभव देखा कि- मैं पूर्व जन्म में चारित्र का पालन करके स्वर्ग लोक में गया था, वहाँ से आकर यहाँ राजा हुआ हूँ। उसी समय पास में छिपी हुई किसी देवी ने राजा को रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टा आदि साधु के उपकरण दिये । वह राजर्षि केश - लोच करने के लिए तैयार हुआ कि इतने में प्रात:काल होने से मङ्गल पाठक इस प्रकार बोलने लगे- "ये राजा तो मुनिधर्म में सूर्योदय के पहले ही जागृत हो चुके हैं और हम लोग प्रात:काल में सूर्योदय होने के बाद जागे हैं। सूर्य उदयाचल के शिखर पर आरूढ़ हुआ है और पद्मालय पद्म रूपी नेत्रों को खोलकर निद्रा का त्याग कर रहे हैं। चारों ओर पक्षियों की चहचहाहट फैली हुई है और काम-क्रीडा के परिश्रम से निकली हुई पसीने की बून्दों को सोखता हुआ वायु बह रहा है। अपने शत्रु सूर्य के क्रूर करों के आघात से डर कर अन्धकार नपुंसक की नाईं नौ दो ग्यारह हो गया है। जैसे कुसेवक निर्धन स्वामी का साथ छोड़कर धनवान् स्वामी की शरण में चला जाता है, वैसे ही भौरे लक्ष्मी रहित इन्दीवर (चन्द्र विकासी कमल) को त्यागकर अम्बुज ( सूर्य विकासी कमल) का आश्रय लेने लगे । पक्षी अपने कल-कल शब्द से मानो यह बतला रहे हैं कि देखो, जगत् की लक्ष्मी आती है और चली भी जाती है, इसका दृष्टान्त सूर्य तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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