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कुवलयमाला-कथा
[101] सहित होना। ये सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से हैं-भाषा के अतिशय हैं। दूसरे (अट्ठाईस) अर्थ की अपेक्ष से हैं (8) महार्थता- गम्भीरतत्पर्य होना (9) अव्याहतत्व -पूर्वापर विरोध न आना (10) शिष्टता माने हुए सिद्धान्त से उल्टा अर्थ न होना या जिन वचनों से असभ्यता जाहिर न होवे (11) नि:संशयताजिसमें किसी प्रकार का संदेह न उत्पन्न हो सके (12) निराकृतान्योत्तरताजिसमें कोई दूसरा दोष न दे सके (13) हृदयङ्गमता-(14) मिथः साकाङ्क्षतापरस्पर सम्बन्ध रखने वाले शब्दों का होना (15) प्रस्तावौचित्य-देश काल से विरुद्ध न होना। (16) तत्त्वनिष्ठता- जो कहना चाहते हैं, उससे विरुद्ध न करना (17) अर्थ प्रकीर्णकप्रसरत्व-सुन्दर सम्बन्ध वाले अर्थ का विस्तार और जिस अधिकार में ऐसा सम्बन्ध न होवे, उसका अविस्तार होना, अस्वश्लाघान्यनिन्दताअपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा का अभाव (19) आभिजात्य-जो कुछ कहना है उसके प्रतिपादन की भूमिका बाँधना (20) अतिस्निग्ध मधुरत्व-घी गुड़ की तरह मनोहर होना (21) प्रशस्यता- कहे हुए गुणों के कारण प्रशंसा पाना (22) अमर्मवेधिता-दूसरे के मर्म(गुप्त बात) न प्रगट करना (23) औदार्य-कही जाने वाली वस्तु की तुच्छता न होना(24) धर्मार्थप्रतिबद्धता-धर्म और अर्थ रहित न होना (25) कारकाद्यविपर्यास-विभक्ति, काल, वचन आदि की गड़बड़ी न होना (26) विभ्रमादिवियुक्तता- मन की भ्रान्ति आदि किसी दोष का न होना (27) चित्रकृत्व-निरन्तर कौतुक होना (28) अद्भुतता (28) अति विलम्ब न करना रुक-रुक कर न बोलना (30) अनेकजातिवैचित्र्य-वर्णन से विचित्रता का होना (31) आरोपित विशेषता- दूसरे वचनों की अपेक्षा से विशेषणों को दाखिल करना (32) सत्त्वप्रधानता-साहसरहित होना (33) वर्णपदवाक्यविविक्तता- अक्षर पद और वाक्यों के विभाग का होना(34) अव्युच्छित्ति प्रतिपादन करते-करते बीच ही में न छोड़ देना (35) और अखेदित्व-बोलने में किसी प्रकार का खेद या प्रयास न करना पड़े।
इस प्रकार भगवान् की वाणी के गुण रूप अतिशय पैंतीस होते हैं। तीर्थङ्कर अठारह दोष से रहित होते हैं। वे दोष ये हैं- (1) दान देने में अन्तराय (2) लाभ में होने वाला अन्तराय=विघ्न (3) शक्ति-वीर्य में होने वाला अन्तराय (4) भोग में अन्तराय (5)उपभोग में अन्तराय (6) हास्य (7) रति -अनुकूल
विनय पर दृष्टान्त
तृतीय प्रस्ताव