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एवं च दध्यावुदयो यथाशस्तं तथाखलु। निदर्शनमयं सूर्यो धिग्धिक्सर्वमशाश्वतम् ॥ 47
ईश्वर : हेमचंद्राचार्य ने ईश्वर को जगत का रक्षक माना हैं। वह समस्त सिद्धियों का दाता है। ईश्वर ही समस्त जगत के नाथ हैं। ऐसे ईश्वर को कवि ने बार-बार नमस्कार किया है। ईश्वर समस्त जगत के प्राणियों को संसार-समुद्र से पार करते हैं। ईश्वर का नाम सर्वार्थ सिद्धिकारक है। परमात्मा के चरणस्पर्शमात्र से ही मनुष्यों का चित्रनिर्मित हो जाता है। हेमचंद्र परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे पूज्य जगतपति ! मुझे जन्म-जन्म तक आपकी भक्ति प्राप्त हो।
देवाधिदेवाय जगत्तायिने परमात्मने । श्रीमते शान्तिनाथाय शांडशायऽ र्हते नमः ॥ 48 श्रीशांतिनाथ भगवन् भवाऽम्भोनिधितारण। सवार्थसिद्धिमन्त्राय त्वन्नानेऽपिनमोनमः ॥ 49 ये तवाऽष्टविधां पूजां कुर्वन्ति परमेश्वर । अष्टाऽपि सिद्धियस्तेषां करस्था अणिमादयः ॥ देव त्वत्पादसंस्पर्शादपि यान्निर्मलो जनः । अयोऽपि हेमीभवति स्पर्शवेधिरसान किम ||51
जीव : हेमचंद्राचार्य ने जैनरामायण में जीव को पंचेन्द्रियों से मुक्त संसारी कहा है। ये पंचेन्द्रियाँ जीव का बाह्य आवरण है। शरीर जीव से भिन्न है। जीवात्मा एवं जड़पदार्थ शरीर दोनो अलग-अलग हैं। जड़ शरीर की मृत्यु के पश्चात् भी जीव का अस्तित्व यथावत् रहता है तथा उसका आभासतत्व शाश्वत है।
जैन रामायण में हेमचंद्र कहते हैं"युच्यते न वधः प्राणिमात्रस्यापि विवेकिनाम्। पञ्चेचेन्द्रियाण्णांहस्त्यादिजीवानां बत का कथा । एवमुक्तश्च मुक्तश्च सहस्रांशुरदोडवदत्।। न हि राज्येन मे कृत्यं वयुषावाप्यतः परम् ॥ "53
भक्ति : साधक के परमात्मा तक पहुँचने का अवलंब है- भक्ति। जीव जब विषय-भोग से विरक्त हो जाता है तब उसकी सुषुप्तावस्था समाप्त होकर जागृतावस्था को प्राप्त होता है। भक्ति प्राप्त होने पर आत्माएँ कर्मबंधन का त्याग कर देती हैं।
हेमचंद्र ने जैन रामायण में अनेक स्थलों पर भक्ति-सूत्रों को बिखेरा हैं। उनके अनुसार परमात्मा केवल भक्तिमान् सेवकों पर ही प्रसन्न होते हैं। परमात्मा के अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए उनकी भक्ति आवश्यक है। हेमचंद्र ने परमात्मा में निवेदन किया है कि संसार के अबोध प्राणियों को आप भक्तिदान दें। भक्ति के सह. ही संसार के मायाजाल में पड़े हुए अबोध प्राणियों का उद्धार संभव है : इस प्रकार जैनाचार्य हेमचंद्र ने भक्ति को भक्त से उच्चस्थान दिया हैं।
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