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को केवल कूटस्थ मानने से भी बंधन मोक्ष जैसी विरोधी अवस्थाएं जीव में नहीं घट सकतीं। इसमें सब दर्शनों से अलग पड़कर, बौद्धसम्मत चित्त की भांति, आत्मा को भी एक अपेक्षा से जैनों ने अनित्य पाना एवं सबकी तरह नित्य मानने में भी जैनों को कुछ आपत्ति तो है ही नहीं, क्योंकि बंधन और मोक्ष तथा पुर्नजन्म का चक्र एक ही आत्मा में है । इस प्रकार आत्मा को जैन मतानुसार परिणामी नित्य माना गया। सांख्यों ने प्रकृति - जडतत्व को तो परिणामी नित्य माना था और पुरुष को कूटस्थ, परंतु जैनों ने जड़ और जीव दोनों को परिणामी नित्य माना। इसमें भी उनकी अनेकांत दृष्टि स्पष्ट होती है ।
जीव को चैतन्य का अनुभव मात्र देह से ही होता है। जैनमतानुसार जीव आत्मा देह परिणाम है। नए-नए जन्म जीव ही धारण करता है, इसलिए उसके लिए गमनागमन अनिवार्य है। इसी कारण जीव को गमन में सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय के नाम से और स्थिति में सहायक द्रव्य अधर्मास्तिकाय के नाम से, इस प्रकार दो अजीव द्रव्यों का मानस अनिवार्य हो गया। इसी कारण यदि जीव का संसार हो तो बंधन भी होना चाहिए। वह बंधन ही पुद्गल अर्थात् जड़ द्रव्य का है । अतएव पुद्गलास्तिकाय के रूप में एक दूसरा भी अजीव द्रव्य माना गया। इन सबको अवकाश देने वाला तत्व (द्रव्य) आकाश है उसे भी जड़ रूप अजीव द्रव्य मानना आवश्क था । इस प्रकार जैन दर्शन में जीव, धर्म, अर्धम, आकाश एवं पुद्गल, ये पांच अस्तिकाय माने गये हैं । परंतु जीवादि द्रव्यों की विविध अवस्थाओं की कल्पना काल के विना नहीं हो सकती । फलतः एक स्वतंत्र काल द्रव्य भी अनिवार्य था । इस प्रकार पांच अस्ति-कार्यों के स्थान पर छः द्रव्य भी हुए। जब काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना जाता तब उसे जीव एवं अजीव द्रव्यों के पर्याय रूप मानकर काम चलाया जाता हैं ।
अब सात तत्व एवं नौ तत्व के बारे में भी थोड़ा स्पष्टीकरण कर लें । जैन दर्शन में तत्व विचार दो प्रकार से किया जाता हैं। एक प्रकार के बारे में हम स्पष्ट हो चुके हैं। दूसरा प्रकार मोक्ष मार्ग में उपयोगी हो उस तरह पदार्थों की गिनती करने का है। इसमें जीव, अजीव, आसुव, वर, बंध, निर्जरा व मोक्ष इन सात तत्वों की गिनती का एक प्रकार एवं उसमें पुण्य एवं पाप का समावेश करके कुल नौ तत्व गिनने का दूसरा प्रकार है। वस्तुतः जीव व अजीव का विस्तार करके ही सात और नौ तत्व गिनाए हैं, क्योंकि मोक्ष मार्ग के वर्णन में वैसा पृथ्थकरण उपयोगी होता है । जीव व अजीव का स्पष्टीकरण तो उधर किया ही है । अंशत: अजीव कर्मसंस्कार- बन्धन का जीव से पृथक होना निर्जरा है और सर्वांशतः पृथक् होना मोक्ष है। कर्म जिन कारणों से जीव के साथ बंध में आते हैं वे कारण आसव हैं और उसका विरोध संवर हैं । जीव और अजीव कर्म का एकाकार जैसा संबंध बंधन है। 1
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