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दृष्टिकोण, वास्तविक मूल्यों की प्राप्ति होती है और जीवन की सत्ता, अस्तित्व एवं उपयोगिता भी तब तक ही संभव है । इन दोनों प्रणालियों के अभाव में न तो दर्शन का न ही जीवन का अस्तित्व संभव है ।
अगर हमारा दर्शन स्वस्थ है तो जीवन भी सुन्दर, स्थायी एवं सुखी, समृद्ध व विकासोन्मुख होगा। अगर जीवन-दर्शन अस्वस्थ है तो हमारा विचार, दृष्टिकोण एवं जीवन विकृत होगा। हमारा दर्शन आशावादी, रचनात्मक एवं सृजनात्मक होना चाहिए। ऐसा दर्शन अमरत्व की राह ले जाने वाला होता है।
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जैन दर्शन : डॉ. राधाकृष्णन् ने जैन दर्शन की मुख्य विशेषताए बताते हुए लिखा है- " इसका प्राणिमात्र का यर्थाथ रूप में वर्गीकरण, इसका ज्ञान संबंधी सिद्धांत, जिसके साथ संयुक्त है, इनके प्रख्यात सिद्धांत 'स्याद्वाद" एवं सप्तभंगी अर्थात् निरूपण की सात प्रकार की विधियां और इसका संयमप्रधान नीतिशास्त्र अथवा आचारशास्त्र । इस दर्शन में अन्यान्य भारतीय विचार पद्धतियों की भांति क्रियात्मक नीतिशास्त्र का दार्शनिक कल्पना के साथ गठबंधन किया गया है। अर्थात् जैन धर्म की समस्त दार्शनिक विशेषताएं इन तीन शब्दों में नीहित है । सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र । इन तीनों के मेल से ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।" सुबुद्धि के कारण समयग्ज्ञान की प्राप्ति होगी तथा समयग्ज्ञान से हमें सच्चरित्रता की प्राप्ति होगी तभी मोक्ष का प्रवेशद्वार हमारा स्वागत करेगा । 'तत्वार्थ श्रद्धान" सम्यग्दर्शन है, जीवादि व्यवस्थित पदार्थों की अवगति ही सम्यग्ज्ञान है तथा संसार से निवृत्ति के अर्थ से ज्ञानी के सुकर्म ही सम्यक्चरित्र है ।
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सम्यग्दर्शन : जैन दर्शन के दो तत्व हैं जीव तथा अजीव । पांच अस्तिकाय, छः पदार्थ एवं सात या नौ तत्वों में इन मुख्य दोनो तत्वों का विस्तार समाहित है। " जीव, धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल ये पाँच अस्तिकाय हैं। जीव, अजीव, आस्त्रव, संबर, बंध, निर्जरा, मोक्ष, पाप व पुण्य ये नव तत्व हैं। उपर्युक्त तत्वों की सरल एवं स्पष्ट विवेचना इस प्रकार की गयी है । -
जैन धर्म में मूल दो तत्व हैं - जीव एवं अजीव । इन दोनों का विस्तार पांच अस्तिकाय, छः द्रव्य एवं सात या नव तत्वों के रूप में पाया जाता है। चार्वाक केवल अजीव को पांच मूलभूत तत्व मानते थे । इन दोनों मतों का समन्वय जीव एवं अजीव ये दो तत्व मानकर जैन दर्शन में हुआ । संसार और सिद्धि अर्थात् निर्वाण और बंधन व मोक्ष तभी घट सकते हैं जब जीव एवं जीव से भिन्न कोई हो। इसलिए जीव एवं अजीव दोनों के अस्तित्व की तार्किक संगति जैनों ने सिद्ध की तथा पुरुष व प्रकृति का संबंध मानकर प्राचीन सांख्यों ने भी वैसे संगति साधी । इसके अतिरिक्त आत्मा को या पुरुष
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