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बताया है । अंतिम दो श्लोकों में महावीर की स्तुति के साथ यह ग्रंथ संपूर्ण हो जाता है। स्तुतिपरक ग्रंथों में अन्ययोग व्यवच्छेद का स्थान महत्वपूर्ण है।"
अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका : इस कृति में हेमचंद्र ने जैनेत्तर मतवादियों के शास्त्रों पर दोषारोपण करते हुए अपनी प्रखर वाणी में जिनशासन की महत्ता को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। हेमचंद्र ने इस कृति में जिन शासन को कल्याणमय व सर्वोत्कृष्ट बताया हैं। जनमत द्वारा उसकी उपेक्षा करने पर वे उन लोगों को दुष्कर्मी कहकर उनकी भत्सना करते हैं। इसमें महावीर के गुण, जैन धर्म के गुण, स्वरुप, मोक्ष का कारण आदि बातें वर्णित हैं। कृति के प्रारंभ में अन्य धर्म-संप्रदायों को दोषी बताया गया है परंतु अंत में स्वयं की समदृष्टि का उपयोग कर सार रूप में यथार्थवाद को कारण मानकर जिन शासन की महत्ता सिद्ध की है।
अन्य संदिग्ध कृतियाँ : स्वयं हेमचंद्र ने अपनी कृतियों का परिचय इस प्रकार दिया है।
पूर्व पूर्वजासिद्धराज नृपते भक्ति स्पृशोयांचया। सांगं व्याकरणं सुवृत्तिसुगमं च कुर्मवन्तः पुरा मद्वेतोरथ योगशास्त्रममलं लोकाय च द्वयाश्रय - च्छेदोडलंकृत्तिनाम संग्रह मुख्यान्यन्यानि शास्त्राण्यपि ॥ 131
अर्थात् सिद्धराज की याचना पर हेमचंद्र ने पांच अंग ग्रंथ, वृत्तियों एवं व्याकरण की रचना की। कुमारपाल के लिए योगशास्त्र की तथा जनता के लिए द्वयाश्रय, छंदोनुशासन, काव्यानुशासन, नामसंग्रहादि की रचना की। कुमारपाल की याचना पर त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित का सृजन किया। सिद्वहेमशब्दानुशासन हेमचंद्र की प्रथम रचना थी।
इन कृतियों के अतिरिक्त कुछ और ग्रंथ भी हेमचंद्रकृत माने जा रहे हैं परंतु उनकी प्रामाणिकता पर संदिग्धता के काले मेघ मंडराये हुए हैं। ये ग्रंथ निम्नलिखित हैं
१. अर्हनामसमुच्चय २. अर्हन्नीति ३. चंद्रलेखाविजय प्रकरण ४. द्विजवदन चपेटा ५. नाभेयनेमिद्विसंधानकाव्य ६. न्यायबलाबलसूत्र ७. बलाबलसूत्र वृहद्वृत्ति ८. बालभाषाव्याकरणसूत्रवृत्ति
उपर्युक्त ग्रंथों की सूची हीरालाल कापड़िया ने अपने लेख में भी दी है। 34 श्री कापड़िया कुछ और कृतियों का नाम देते हैं जो संदिग्ध हैं परंतु
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