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स्वामी, अकारण उपकारक, बुद्धियुक्त आप, आपकी आज्ञा पाकर नरक संबंधी आयुष्य के निमित्त शिकार, जुआ तथा सुरापान आदि दुर्गुण मेरे राज्य में निषिद्ध किए हैं । पुत्रहीन जिसकी मृत्यु हो जाती है उसका धन लेना भी मैने बंद कर दिया है। संपूर्ण पृथ्वी पर अरिहंत के मंदिर बनाकर उसे सुशोभित किया है, तो अब इस समय वर्तमान राजा के समान हुआ हूं ।
पहले भी आपने मेरे पूर्वज सिद्धराज की भक्तिभरी प्रार्थना पर व्याकरण की रचना की है। मेरे लिए आपने पवित्र योगशास्त्र की भी रचना की है। जनता के लिए द्वयाश्रय काव्य, छंदोनुशासन, काव्यानुशासन, नामसंग्रह एवं अन्य ग्रंथ आपने रचे हैं । हे स्वामी, आप लोकोपकार के लिए स्वयं तैयार हैं परंतु मेरी प्रार्थना है कि मेरे जैसे मानव को प्रतिबोध देने के लिये आप त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित को प्रकाशित करें 14 कुमारपाल राजा की ऐसी प्रार्थना को सुनकर हेमचंद्राचार्य ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ग्रंथ को वाणी से विस्तारित किया । इस कृति का प्रधान फल है - धर्मोपदेश ।” इससे यह जानकारी मिलती है कि कुमारपाल के जैन धर्म स्वीकारोक्ति के पश्चात् ही यह ग्रंथ रचा गया। डॉ. वूलर इस ग्रंथ की रचना वि. सं. १२१६ से १२२९ के बीच की मानते हैं। यह वास्तविक ही है ।" यह ग्रंथ हेमचंद्र की उत्तरावस्था में लिखा गया था ।
यह एक ऐसा ग्रंथ है जिसे पढ़कर पाठक को शब्दशास्त्र, अलंकार शास्त्र, छंदशास्त्र, जैन पौराणिक कथाओं, जैन तत्वज्ञान, इतिहास, तीर्थंकरों के इतिहास आदि की जानकारी एक साथ होती है। इस ग्रंथ में सामाजिकता भी कूट-कूट कर भरी हुई है। धर्म की दृष्टि से यह ग्रंथ महान है ही । इसके १० पर्वों में जैन तीर्थंकरों का स्वरुप वर्णन, जीवविचार, कर्मस्वरूप, आत्मा का अस्तित्व वैराग्य, क्षणभंगुर जीवन, आदि विषयों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह ग्रंथ तत्कालीन राजनैतिक उथलपुथल को प्रस्तुत करता है ।
काव्य एवं शब्दशास्त्र की दृष्टि से तो यह महाकाव्य उच्च शिखर पर विराजमान है। मोतीचंद कापड़िया लिखते हैं। "यह ग्रंथ प्रारंभ से अंत तक पूरा पढ़ा जाए तो संपूर्ण संस्कृत भाषा के कोश का अभ्यास स्वतः हो जाता है, ऐसी इसकी शब्द योजना है।7 ग्रंथ का पर्व ७ जैन रामायण नाम से विख्यात है। तुलसी के मानस का ब्राह्मण संप्रदाय में जो स्थान है ठीक वही स्थान श्रमण या जैन संप्रदाय-द्वय में जैनरामायण का है। विमलसूरि, रविणेश आदि द्वारा प्राकृत में रामकथा लिखे जाने के उपरांत भी हेमचंद्र के इस संस्कृत ग्रंथ का वर्तमान में अधिक महत्त्व है। चूंकि त्रिपप्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व - ७, जैन रामायण ही यहां आलोच्य कृति है अतः इसकी विषयवस्तु आदि का विस्तृत वर्णन अग्रिम पंक्तियों में करेंगे।"
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