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प्रायः यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज के लोग आपस में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। अर्थात् अनुभूति की अभिव्यक्ति का प्रधान साधन है भाषा। बिना अर्थ के शब्द का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। इस हेतु शब्द व अर्थ का नित्य संबंध आवश्यक है। नादसौंदर्य एवं अवसरानुकूलता काव्यभाषा का अनिवार्य अंग है। आगे के पृष्टों में हम आलोच्य कृति त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित की भाषा पर विचार कर रहे हैं। "जैन रामायण'' नाम से लोकप्रसिद्ध ग्रंथ त्रिषष्टिशलाकापुरुषारत, (पर्व) ७ संस्कृत भाषा का काव्य ग्रंथ है। ग्रंथावलोकन से हेमचंद्र का भाषाधिकार सहज ही अनुमानित हो जाता है। डॉ. वि. भा. मसलगांवकर के अनुसार “त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित की भाषा सरल, सरस एवं आंजमयी है। आख्यान साहित्य में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें वर्णन की अधिकता है। वैदिक पुराणों के समान ही हेमचंद्र के पुराण में भी अतिशयोक्ति शैली का स्वच्छंदता से प्रयोग किया गया है। तीर्थंकरों के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करने में आचार्य सिद्धहस्त हैं।" 244 इसी प्रकार मधुसूदन मोदी ने अपने ग्रंथ हेमसमीक्षा मैं "आलोच्य कृति की भाषा पर विचार करते हुए लिखा है कि काव्य एवं शब्द शास्त्र की दृष्टि से तो इस काव्य की बात ही क्या कहें, । इसमें प्रसाद है, कल्पना है। शब्दों का माधुर्य है, सरलता एवं गौरव है। यह सब बताने के लिए उद्धरण कैसे दिए जाए। 245 इसी ग्रंथ की भाषा पर विचार करते हए एक शोधकर्ता तो यहाँ तक लिखते हैं कि "यह ग्रंथ आदि से अंत तक पढ़ा जाए तो संस्कृत भाषा के संपूर्ण कोश का अभ्यास हो जाता है ऐसा इसका भाषा सौष्ठव है।'' 246 कृति का भाषायी अन्वेषण करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इसकी भाषा भावानुकूल, समासशैली युक्त, नादसौंदर्य युक्त, चित्रात्मक, गतिशील, अंलकारिक एवं प्रसादगुण युक्त है। अधिक स्पष्टता के लिए हेमचंद्र की कतिपय भाषा-विशेषताओं का सोदारहण संक्षिप्त विवेचन दिया जा रहा है। हेमचंद्र की भाषा की प्रथम विशेषता उसकी भावानुकूलता है। कहीं-कहीं वस्तुगत वर्णनों में भाषा समस्त रही है तो लघु प्रसंगों यथा-विरह-विलाप, संवाद, उपदेश आदि में भाषा व्यस्त रही है। अलंकारों से बेझिल भाषा कहीं- कहीं गुम्फित हो गई है तो साधारण कार्यकलापों की भाषा समास रहित। कई स्थानों पर श्लोक के संपूर्ण पाद एक शब्द के रुप में सामने आए हैं । यथा
त्वमुपात्तपरिव्रज्योऽन्येधुर्वारासीमगाः । दृष्टोऽनेनापशकुनमित्याहत्य निपातितः । दंतादंतिप्रवृते मैरुत्स्फुलिङ्गेगकृताम्बर : । कुन्ताकुन्तिमिलत्सादी शराशरिमिलद्रथी॥ सिंहद्वियाश्वमहिषवराहवृषमा दिभिः ॥' 247
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