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जैनाचार्य हेमचंद्र काव्यशास्त्र के ज्ञाता थे। अपने काव्य में इन्होंने अलंकारों का भलीभांति निर्वाह किया है। त्रिशष्टिशलाकापुरुष चरित, पर्व ७ में आए सभी अलंकारों के उदाहरण यहां स्थानाभाव के कारण देने संभव नहीं हैं फिर भी मुख्य-मुख्य अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं। अनुप्रास : अनुप्रास में चारों भेद त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में आए हैं : 33 छेकानुप्रास : इति श्रुत्वाथ पवनो ययो पवनरंहसा।
पारापत इव प्रेयस्युत्कः श्वशुरपत्तनम्। (३/२२६) वृत्त्यानुप्रास : तां मात्रवनमस्कृत्य क्षमायित्वा च ते ययुः ॥
स्वामिवत्स्वाम्यपत्येऽपि सेवकाः समवृत्तयः ॥ (३/१३२) श्रुत्यानुप्रास : ममभामंडलस्येव भ्रातुरेहि तदोकसि।
स्त्रीणां पतिगृहान्यत स्थानं भातृनिकेतनम् (९/१४) अंत्यानुप्रास : तत् कर्णान्ते नमस्कारदायिनं पुरुषं च तम्।
तदभ्यर्णे तदीयं च सपर्याणं तुरंगमम् ॥ (१०/३६) यमक : श्री कंठेनैकदा मेरोर्निवृत्तेन व्युदेक्ष्यत।
पुरुषोत्तरस्य दुहिता पदमा पद्मव रुपतः ॥ * (१/१२)
कुठारधातैराच्छिन्ना भटानामपरैभटैः।।
___ पंचशाखा : पतति स्म शाखा शाखावतीमिव ॥ (७/६९) दीपक : राजा राजसु सोऽराजद् द्विराज इवोडुष।
ग्रहेष्विव ग्रहराजः सुमेरुः पर्वतेष्विव । (४/११७) : जयानाम्न्यां च जायायां तस्याजायत नन्दन : ॥
दमयन्त : प्रियदम : कलानां निधिरिन्दुवत् (३/१६४) ३४४, ३५०, ४१९, ४५९ - ४६२, ४७३, ५४०, ५/१, ५, १७, ३१, ५७, ५८, ७९, ११५, १६९, १८८, १९६, २२१, ३५१, ,३८५, ३९९, ४१२, ४१५, ४२६, ४४०, ४६०, ६/१४, २५, २८, ३३, ५८, ६०, ६९, ७२, ९९, १०४, १०९, १४५,, १२७, १५७, २०७, २१५, २२३, २६८, २७०, २७४, २९५, ,२९९, ३०३, ३४५, ३४८, ३४८, ३४९, ३६६, ३७५, ३८१,७७, ३२, ३३, ४६, ४७, ५०, ५१, ६४, ६६, ७०,७२, ७७, ८८, १३९, १४७, १५५, १५६, १६७, १७३, १७५, ,,१८४, १९४, २०१, २०७, २१०,,, २१८,, २४६, २४८, ,२५५, ,,२९२, २९३, ३१९, ,३२८, ,३५२, ३६४, ३७१, ३७५,, ,८/३६, ४२, ४४, ५५,, ,८६, १०७, १६३, १७१, १७५, २५७, २७८, २९७, ३००, ९/ १६, २३, ३७, ३८, ४२, ४७, १०७, ११७, ११८, १४७, २२२, २२२, २२३, १०/७०, ९०, १२०, १२५, १५५, १८५, १९४, २५७, २५८, आदि स्थल। व्याजोक्ति : ददर्श तत्र तं बालं दिव्यालंकार भाषितम्।
विधाधरेन्द्रः सोऽ पुत्रः पुत्रीयन्नाददे स्वयम् ॥ प्रेयस्याः पुष्पवत्याश्चार्पयामास तमर्भक्रम । देव्यद्य सुपुवे पुत्रमिति चाधोषयत पुरि
उपमा
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