________________
धन्यान्यक्षीणि यानि त्वां पश्यन्ति प्रतिवासरम्।
तेभ्योऽपि धन्यं हृदयं तददृष्टो येन धार्यसे ॥ स्तुति के अंत में रावण शांतिनाथ से भक्ति मांगता है
भूयो भूयः प्रार्थये त्वामिदमेव जगद्विभो। भगवन भूयसी भूयात्तवयि भक्तिर्भवे भवे। स्तुत्वेति शांतिलंङ्केशः पुरो रत्नशिलस्थितः ॥ तां साधयितुमारेभे विद्यामक्षस्रजं दधत्।।
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि हेमचंद्र की भावप्रणवता शास्त्रस्थितिसंपादित एवं बोझिल है। उसमें कृत्रिमता की गंध विद्यमान है। रस वर्णनों के स्थल भले ही विस्तृत एवं स्थूल हों परंतु उनमें मार्मिकता एवं सहजानुभूति का अंश कुछ कम नजर आता है। शांत वीर एवं भयानक रसों का परिपाक हेमचंद्र की अनोखी देन कहा जा सकता है।
(२) छंद विधान : वृत्तरत्नाकर की भूमिका में श्रीधरानंद शास्त्री लिखते हैं- "छंदशास्त्र" का ज्ञान साहित्यानुशीलनशील व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। तदनुसार छंद ज्ञान के अभाव में उच्चारण गति व लय ठीक नहीं चल सकते। साहित्य-आस्वाद हेतु आवश्यक है कि छंद का ज्ञान हो। स्वयं हेमचंद्र ने अनेक व्याकरण ग्रंथों, कोश ग्रंथों एवं अलंकार ग्रंथों की रचना की है। इन ग्रंथों में एक प्रधान छंद एवं अन्य अवसरानुकूल सहायक छंद होने की परंपरा का निर्वाह हेमचंद्र ने काफी हद तक किया है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व ७ में छंद विधान
(क) संस्कृत काव्यशास्त्रीय परंपरा के अनुसार
१. महाकाव्य सर्गबद्ध रचना होती है। त्रि.श.पु.च. में अनेक पर्व हैं और प्रत्येक पर्व में अनेकानेक सर्ग हैं।
२. सातवां पर्व सर्ग १ से १० रामचरित्रात्मक है। अर्थात् त्रिशपुच. नामक वृहन्महाकाव्य के अंतर्गत प्रतिष्ठित महाकाव्य ही माना जा सकता है।
३. आमतौर पर प्रत्येक सर्ग में एक मुख्य छंद होता है- प्रथम छंद से लेकर उपान्त्य तक और अंत्य छंद में परिवर्तन होता है, अर्थात् वह उपर्युक्त छंद से भिन्न होता है (इस परंपरा के अपवाद स्वरुप अनेक उदारहण भी मिलते हैं।)
४. हेमचंद्र ने पर्व ७ के प्रथम सर्ग से लेकर दसवें सर्ग तक में से प्रत्येक के अंतिम छंद को छोड़कर सर्वत्र अनुष्टप् छंद का ही प्रयोग किया हैं। प्रत्येक सर्ग में अंतिम छंद अनुष्ट प् से भिन्न हैं।
(ख) सर्गानुसार विवरण : प्रथम सर्ग-छंद संख्या १ से १६३ (अपान्त्य तक)-अनुष्टप-अनुष्टप् छंद के लक्षण१. ८-८ अक्षरों के कुल ४ पाद (= चरण = अष्ट्क)
139